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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२१३.) ने-भगवती आदि अनेक-सूत्रोंकी, साक्षी दे के लिखा है किमहावीर स्वामिजीका, नाम गौत्र-सुननेसें ही, महा फल है । तो प्रत्यक्ष सेवा भक्ति करनेका जो फल है सो, क्या वर्णन करु. ॥
हे ढूंढकमाइयो, इहांपर थोडासा ख्याल करोकि-तीर्थकरोंका-जो नाम, और गोत्र हैसो, आजतक लाखो बलकन करोडो. ही क्षत्रियों के कुलमें दाखल होताही आया है । तोभी तीर्थंकरोंके भक्त है सोतो उनोंका-नाम, और गोत्र, श्रवण मात्रसें ही, तीथंकरोंकी-आकृतिमें, भक्तिके वससे लीन होके, आनंदित हुवामहाफलको ही प्राप्त कर लेता है । तो पिछे साक्षात्पणे-तीर्थकरोंकी आकृतिका बोधकों कराने वाली, तीर्थकरोंकीही-भव्य मूर्तिसे, हे ढूंढकभाइओ-तुमको किस कारणसें त्रास होता है ?।
तुम कहोंगेकि-फलफूलादिककी पूजा देखके, त्रास होता है। सोभी तुमेरा कथन योग्य नहीं है। क्योंकि-तुमरी स्वामिनीजी तो-वीर भगवानके परम श्रावकोंकी पाससेंभी, फलफूलादिककी विधिसे-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक जो मिथ्यात्वी देवो है, उनोंकी-पथ्थरसे बनी हुई मूर्तिका, पूजन-दररोज, कर.नेको त. स्पर हुई है । देखो. सत्यार्थ. पृष्ट. १२६ में ।। और-तुमको धन पुत्रादिककी लालचदेके, मोगरपाणी आदि यक्षोंकी-क्रूर मूर्तियांकी, फलफूलादिकसें-पूजा करानको तो, अलगपणेही-उद्यत हुई है। देखो. सत्यार्थ. पृ. ७३ में ॥ ते दोनों प्रकारकी-भयंकर मूर्तियांका, पूजन करानेसें, न तो तुमेरी स्वामिनीजीको त्रास हुवा । और न तो तुमको-पूजनेसेंभी त्रास हुवा । तो पिछे-वीतराग देवकी भव्य मूर्तिका, पूजनसें तुमको-क्यौं त्रास होता है ? । क्या कोइ संसारकी अधिकता रही हुई है ? | थोडासा तो सोच करो ? क्या केवल मूढ बनजाते हो ? ॥ २७ ॥
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