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ढूंढकभाईयांका संसारवासा. (४७) मूर्तिका पूजन किये बिना, रोटीभी नहीं खाते है। परंतु प्रीतरागी मूर्तिका अलोकिक भव्य स्वरूप देखके, निकट भवी मिथ्या दृष्टि जीवों है, उनकामी पूजन करनेका-भाव, हो जाता है। और बड़े बड़े तीर्थोके उपर जाके सेंकडो लोक-पूजन भी करते है । सो तो उनोंका भव्यपणाका लक्षण है । तो क्या वही परम पवित्र-जिन मूर्तिके, निंदक बनाने, उनका नाम, संसार खाता है कि कोई दूसरा प्रकारका, संसार खाता है ? ॥ ७॥
॥फिर. सत्यार्य-पृष्ट. ६८ में-डूंढनीजीने लिखा है कि-८ मूर्तिको धरके, श्रुतिभी लगानी-नहीं चाहिये ॥ ८॥....
विचार-पितरादिक, और यक्षादिक, मिथ्यात्वी देवों के हमारे ढूंढक श्रावक भाईयांको भक्त बनाके, उनोंकी प्रतिमाका पूजन, षट्कायाका आरंभसेती फल फूलादिकसे कराके, तीर्थकर भगवानकी परम पवित्र मूर्तिमें, श्रुति मात्र लगानेका भी-निषेध करते है ? सोही संसार खाते के स्वरूप वाले है कि, कोई दूसरे है ? यह भी. एक विचार करने जैसा ही है ॥ ८ ॥
फिर. पृष्ट. ३७ में ढूंढनीजीने लिखा है कि-९ असल, और नकलका-ज्ञान तो, पशु, पक्षीभी-रखते है । ऐसा लिखके-एक सवैया भी लिखा है ॥ ९ ॥ ___ विचार-हमारे ढूंढक भाईओ, असल जो त्रिलोकीके नाथवीतराग देव है, उनकी परम पवित्र-पूर्तिका ज्ञान पशुकीतरां नहीं करते हुये, जो मिथ्यात्वी यक्षा दिक-क्रूर देवताओ है, उनोंकी मू. त्तियांमें भ्रमित होके, वीर भगवानके परम श्रावकोंकोभी, पूजानेको तत्पर हुये है ? क्या उनका नाम-संसार खातां मांन्या है ? ॥९॥ ".. फिर. पृष्ट. ४३ में,ढूंढनी ने लिखा है कि-१० भगवानकी
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