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(४६) ड्रडकभाईयांका संसारखाती.
फिर सत्यार्थ. पृष्ट. ५१ में-ढूंढनीजीने, लिखा है कि-६ स्थापनारूप अक्षरोंसें, ज्ञान होना, किस भूलसे कहते हो? ॥५॥
विचार-जब अक्षरोंसें, ज्ञान ही नहीं होता है, तो क्या हमारे ढूंढक भाईओ, सर्वथा प्रकारसें-नास्तिक रूप होके, उनोंने मान्य किये हुये, बत्रीश सूत्रों के अक्षरोंसेभी, कुछ ज्ञान होनेका, नहीं मा. नके, तीर्थकरोंकी-सर्वथा प्रकारसें, अवज्ञा करनको-तत्पर हुये है ? क्या उसका नाम संसार खाता मान्या है ? ॥ ५॥ . फिर. सत्यार्थ. पृष्ट. ६१ मे-ढूंढनीजीने लिखा है कि-६ हमने भी-बडे बडे पंडित, जो विशेषकर भक्ति अंगको-मुख्य रखते है, उन्होंसें सुना है कि यावत् काल-ज्ञान नहीं, तावत्काल-मूर्ति पूजन है । और कई जगह लिखाभी देखने में आया है ॥ ६ ॥
विचार-जिन मूर्तिको-पूजन करनेका, ढूंढनीजीने-बडे बडे पंडितोंसे तो सुना, और जैन सिद्धांतोमें-लिखा हुवाभी देखा, तो भी ते सर्व बडे बडे पंडितोंकी, और ते सर्व शास्त्रोंकी-अवज्ञा करके, और अपना ही-परम पूज्य, तीर्थंकरोंकी-मूर्तिकी, अवज्ञा करके, और-पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी-मूर्तिका पूजनकी, सिद्धि करके, अपनाही लेखपर कुचा फिराते हो ? क्या उनका नाम-संसार खाता है, कि-कोई दूसरा प्रकारका, संसार खाता है ? ॥६॥ ....॥ फिर. सत्यार्थ. पृष्ट. ६९ में-ढूंढनीजीने लिखा है कि-७ देवलोकमें-जिन प्रतिमाओंको, समदृष्टि भी पूजते है, और मिथ्या दृष्टिंभी पूजते है, कुछ समदृष्टियांका-नियम, नहीं है ।। ७॥..
विचार-समदृष्टि जीवतो, इस पंचमालमें भी तीर्थकरोंकी
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