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________________ प्रस्तावना. क्योंकि जैन धर्मका जंडाको लेके फिरने वाली, ढूंढनी पार्वतीजीको ही, जैन धर्मके तत्वोंकी समज नहीं हैं, तो पिछे जैन धर्मके तत्वों की दिशा मात्रसे भी अज्ञ, ते पंडितोंका हम क्या दूषण निकालें? ॥ इसमें तो कोइ एकाद प्रकारकी चालाकी मात्र ही दीखती है । ते सिवाय नतो पंडितोंने किंचित् मात्रका भी विचार किया है । और नतो ढूंढनी पार्वतीजी भी जैन धर्मका तत्वको समजी है । मात्र भव्य प्राणियांको जैन धर्मसे सर्वथा प्रकारसे भ्रष्ट करनेको प्रवृतमान हुई है ॥ . केवल इतना ही मात्र नहीं, परंतु अपनी स्त्री जातिको तुछता कोभी प्रगट करके, जाति स्वभाव भी जगें जगेपर दिखाया है, और परमप्रिय वीतराग देवकी शांत मूर्तिको पथ्थर, पहाड, आदि निंद्य वचन लिखके तीक्ष्ण बाण वर्षाये है ? । और इनक पूजने वाले श्रावकोंको, और उनके उपदेशक, गणधर महाराजादिक सर्व आचार्योंको, अनंत संसारी ही ठहरानका प्रयत्न किया है ? । और अपने आप पर्वत तनयाका स्वरूपको धारण करती हुई, और गणधर गूंथित सिद्धांतको भी तुछपणे मानती हुई, और जूठे जूठ लिखती हुइ भी, जगें जगें पर तीक्ष्ण वचनके ही बाण छोडती हुई चली गई है ? ।। ___परंतु हमने यह जमानाका विचार करके, और स्त्री जातिकी तुछताकी उपेक्षा करके, सर्वथा प्रकारसे प्रिय शब्दोंसेंही लिखनेका विचार किया है, परंतु इस ढूंढनीजीका तीक्ष्ण वचनके आगे, हमारी. बुद्धि ऐसी अटक जातिथीकि, छेवटमें किसी किमी जगेंपर ढूंटनीजीका ही अनुकरण मात्र करादेतीथी, तो भी हमने हमारी तरफसे, नर्म स्वरूपसे ही लिखनेका प्रयत्न किया है.।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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