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________________ पशुका ज्ञान. (७३) सकी - मूर्तिभी, खाई जायगी । असवारीके योग्यकी मूर्ति पेंभी, असवारी होगी. इत्यादि. समीक्षा - हे विचार शीले ! तूं ही लिखती है कि-मेरु. गंगानदी आदि, सुननेकी अपेक्षा, नकसा देखनेसें, जल्दी समज आ जाती है । तो क्या मेरुका - आकार पै चढाईभी तूं कर लेती है ? और गंगानदी के आकारका - पाणीभी पीई लेती होगी ? जो खानेकी चिजका - आकारको, खानेका बतलाती है ? और असवारीकी चिजकी आकृति पैं - असवारी करनेका बतलाती है, ? ॥ जिस चिजकी 'मूर्ति' जितना कार्य के वास्ते बनाई होंगी, उनसे उतनाही कार्य प्राप्त होंगे, ज्यादा फलकी प्राप्ति कैसे होंगी ? | तूंने जो मिशरीका भावनिक्षेपमें- कल्पित ' मिट्टीका कूज्जा ' कहाथा, सो क्या तूं खा गईथी ? जो हमको आकारमात्रको, - खानेका, दिखातीहै ? बसकर तेरी चातुरी ॥ , ॥ इति मूर्त्तिसे ज्यादा समजका विचार || || अब पशुक़ा ज्ञान ॥ ढूंढनी - पृष्ट ३७ ओ १४ सें- असल और नकलका ज्ञान तो, पशु, पक्षीभी, रखते है ॥ यथा - सवैया, पृष्ट ३८ से. जटही प्रवीन नर पटके बनाये 'कीर' ताह कीर देखकर बिल्ली हुन मारे है, कागजंक कोर २ ठौर २ नाना रंग ताह, फुल देख मधुकर दुरहीते छारे है, चित्रामका चीत्ता देख श्वान तासौं डरेनाह, बनावटका अंडा ताह पक्षी हु न पारे है, असल हुं नकलको जाने पशुपखी राम, मूढ नर जाने नाह नकल कैसे तारे है. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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