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________________ ( ७२ ) मूर्त्तिसे ज्यादा समज होती है. कि- स्त्रीयोकी मूर्ति से तो काम जागे, परंतु भगवानकी मूत्ति देखके भगवान् पणेका भाव न जागे, परंतु सो किसके भाव न जागे किवीतराग देवकी मूर्तिपर द्वेष करके, जिसको अधिकपणे संसार परिभ्रमण करना होगा, उसके तो भले भाव न जागें, परंतु जिस भविक पुरुषको, भव भ्रमणकाल अल्प रहा होगा सोतो वीतराग देवकी मूर्तिको देखके सदाही प्रमुदित रहेगा, यहतो निःसंशय बात है, । जब वीतरागदेवकी मूर्ति देखके भक्ति आजाये, तब वंदनिक न होगी, तो क्या निंदनिक होगी ? किस गुरुने तूंने यह चातुरी दिखाई कि - वीतराग देवकी' मूर्त्ति ' निंदनिक है ? ॥ || अब मूर्त्तितें ज्यादा समज ॥ ढूंढनी - पृष्ट ३५ ओ १५ सें - हांहां सुननेकी अपेक्षा आकार ( न कसा ) देखने से, ज्यादा, और जल्दी समज आजाती है, यह तो हमभी मानते है, परंतु उस आकारको 'वंदना ' नमस्कार करनी, यह मतबाल तुम्हें किसने पीलादी || " समीक्ष:- हे सुमतिनि ! जो हम, मेरु, लवणसमुद्र, भद्रशालवन, गंगानदरूप 'भावस्तुको नमस्कार नहीं करते है, तो उनकी ' स्थापनारूप ' नकसाको, कैसे नमस्कार करेंगे ? जिस वस्तुका भावको ' वंदनिक मानते होंगे, उनका ' नामादि तीनोभी निक्षेपको, वंदनिक मानेंगे, तूंहि समजे विना, मतवाली बनी हुई, ग पड सपड लिख देती है | 6 ढूंढनी - पृष्ट ३६ ओ १३ से - जो वंदने योग्य होंगें, उनकी मूतभी बंदी जायगी, तो क्या जो चिज खानेके योग्य होगी, उ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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