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बाप, पापेकी, मूर्तियां . समीक्षा-हे पंडिते ? हजारो जैनशास्त्रका ज्ञान छोडके, याही उत्तम ज्ञान, ढूंढ २ के लाई, ? कुछ विचार तो करणाया किजब बनावटकी चिज पर, पशु, विगरे दोर नहीं करते है, कभी भ्रममें पडजावे तो, दोर करेभी, परंतु तेरे कहने मुजब निःफल होवे । हमभी तेरी यह बात मान लेंगे ।। परंतु कोइ 'पुरुष-बिल्लीके
आगे-पोपट पोपट । मधुकर आगे-फुल फुल । और श्वानके आगेचित्ता चित्ता। पंखीके आगे-अंडा अंडा । वैशैं वारंवार पुकार करें, तो क्या ? पोपटके नाम पै बिल्ली-दोड करेगी. ? तूं कहेंगी . दोर न करें । तैमें फुलके नामसें -भमराभी न आयगा । चित्ताके नामसे-कुत्ताभी न डरेगा । हां कभी ' आकृति देखनेसें' तो ते पशु, भूलभी खा जावें. परंतु-नाम ,मात्रका, उच्चारण सुनके तो, कभी न प्रवृति करें । तो पिछे भगवान् भगवान् ऐना 'नाम' लेनेसे भी, तुमेरा तरणा कभी न होगा. ? तो क्या होगा कि, तमेरा नास्तिकपणा जाहेर होगा, इस वास्ते यह सवैयाका बनानेवालाभी, पंडितोंकी पंक्तिसें-अलगही मालूम होता है, क्योंकि विचार पूर्वक नहीं है.॥
॥ इति पशु ज्ञानका विचार ॥
॥ अब बाप, बावेकी, मूर्तियां ॥ ढूंढनी-पृष्ट ३८ ओ १४ सें-हमने तो किसीको देखा नहीं कि-अपने बापकी, वावेती, मूर्तियों बनाके, पूज रहै हैं । और उसकी न्हुं (बेटेकी बहु ) उस स्वरकी-मूर्तिसें, चुंगट, पल्ला, करती है। हां किसीने कुलरूढी करके, वा मोहके वस होकर-क्रोध करके, भूल करके, कल्पना करली तो, उसकी--अज्ञान अवस्था है.।।
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