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मूर्त्तिमें श्रुति लगानी नही || और सूत्र पाठ - कुतक. (९१) || अब मूर्त्तिको घरके श्रुति लगानी नहि || ढूंढनी - पृष्ट ६७ ओ ६ से - मूत्तिको धरके उसमें श्रुति लगानी नहीं चाहीये.
समीक्षा - पाठक वर्ग ! इस ढूंढनीको, कोई मिध्यात्वके उदय से, केवल वीतरागदेवपर ही परमद्वेष हुवा मालूम होता है ? नही तो ध्यानके अनेक आलंबन है. उसमेंभी - नासाग्र दृष्टियुक्त, और पझासन सहित, परम योगावस्थाकी सूचक, वीतरागदेवकी - मूत्ति, प्रथमही ध्यानका आलंबनरूप है. तोभी ढूंढनी लिखती है के, मूर्तिका धरके - श्रुति लगानी नहीं चाहीये, कितना वीतरागदेव उपर द्वेष जागा है । नहीं तो देखो कि--समुद्र पालीको, चोरके वंधनों कों देखने से भी--धर्म ध्यानकी प्राप्ति हुई। और 'प्रत्येक बुद्धियोंको' बेलादि देखके, धर्म ध्यानकी प्राप्ति हुई । यह सब तो ध्यानकी प्राप्तिके कारण हो जाय. मात्र वीतराग देवकी - मूर्त्तिको देखनेसे ढूंढनके ध्यानका नाश हो जाय ? यह तो ढूंढनीको द्वेषका फल उसमें दूसरे क्या करे ?
॥ इति मृतिमें श्रुति लगानेका विचार ||
|| अब सूत्रपाठी - कुतर्कों का, विचार करते है |
पाठक वर्ग ! ढूंढनीने - इहां तक जो जो--कुतर्कों किईथी, उसका सामान्य मात्र तो - उत्तर लिख दिखाया है, उससे मालूम हो गया होगा कि, ढूंढनी के वचन में सत्यता कितनी है ? और इसीही प्रकारसें आगे सूत्रकारोंका लेखपैंभी, जो जूठा आक्षेप किया है, सोभी, स्वजन पुरुष तो समज ही लेंगे. परंतु अजान वर्ग तो शं
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