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नमोत्थुणका पाठ.
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पाकर परोपकार करके - मोक्ष हुये है, उन्हींको नमस्कार है. इत्यर्थःसमीक्षा - हे ढंढनी 'नमोत्थुणका' पाठसे, वर्तमान तीर्थंकरोको, और मोक्षमें प्राप्त हुये तीर्थंकरोंकोभी, नमस्कार करना तूं मानती है ? परंतु मोक्षमें प्राप्त हुयें तीर्थकरो तो अपरकालकी अवस्थारूपसे 'द्रव्यनिक्षेपका ' विषय है । देखो सत्यार्थ पृष्ट. १६ में - ' द्रव्य ' संयमादि केवल ज्ञान पर्यंत, गुण सहित शरीर, सो मानाथा । और ' द्रव्यनिक्षेप' जो भगवानका मृतक शरीर सो, तूने नि रर्थकपणे मानाथा || अब इहांपर लिखती है कि, जो 'नमोत्थुर्णका' पाठ पढना है इससे. तीर्थंकर, और तीर्थंकर पदवी पाकर परोपकार करके - मोक्ष हुये हैं, उन्हींको नमस्कार है । विचारना चाहीये कि, जो तीर्थकरपणे २० विहरमान है, उनको तो नमस्कार करना युक्तियुक्त हो जायगा, परंतु जे ऋषभादि तीर्थकरो, हो गये है, उनको नमस्कार, किस' निक्षेपाको ' मानके करेंगे ? | जो ' द्रव्य निक्षेपाको ' मानके नमस्कार करें तो, ढूंढनीने मृतक शरीर पिछेसें निरर्थकपणा माना है । और दूसरा निक्षेपभी कोइ घटमान होई सकता नहीं । इस वास्ते 'नमोत्थुर्णका' पाठ, और जे लोगस्स के पद - " अरिहंत कित्त इस्सं चउवीसंपि केवली " यह पाठ पढने का है सोभी - निरर्थक हो जायगा ? इस वास्ते शास्त्रकारनेजिस प्रमाणे निक्षेप माना है, उस प्रमाणे निक्षेपका स्वरूपको मानेंगे, तब ही ' अरिहंते कित्त इस्सं ' यह पाठ और ' नमोत्थुणकामी ' पाठ, सार्थक होगा। परंतु ढूंढनीजी के मन कल्पित - निक्षेप से नमस्कारका लाभकी सिद्धि न होगी |
॥ इति नमोत्थुणं पाठका विचार ||
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