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नमोणका पाठ.
( ८९ ) साधन है ? तो पिछे जिसको नीति रिति मात्रकीभी खबर नही है, वैसे-ढूंढकोंकी पाससे, यह ढंढनी वीतरागदेवको मूर्त्तिकी भक्तिमात्र छुडवाती हुई, और अपना परमपूज्य वीतरागदेवकी -अवज्ञा करानेका प्रयत्न करती हुई, और यह जूठा थोथा पोथाकी रचना करती हुई, अपर्णाभी क्या गति कर लेवेगी ? और उनके सेवकोकोभी - किस गतिमे डालेगी ? क्योंकि जिसको परमतत्त्व प्राप्त हो गया है, अथवा परम- ज्ञानकी प्राप्तिमें ही, सर्व संगत्याग करके - लगा हुवा है, वैसा साधुकी पाससे तो, शास्त्रकार भी - पूजन करानेका निषेध ही लिखते है, तो फिर किसवास्ते यह थोथा पोथा में कुतर्कों का जालकी रचनाकरके, अपणा, और अपने आश्रित हुयेले भद्रिक सेवको का - नाश करनेका प्रयत्न कर रही है ? | क्योंकि जब साधुपदको प्राप्त होके - परमतत्त्वकी प्राप्ति - लालेवेगा, तब सभी क्रियाओं - आपोआप छुट जाती है । उस पुरुषको तरे जैसा, मर्त्तिपर - द्वेषभाव ही, काहेको करणा पडेगा ? अगर जो तूं तेरे मन में अपने आप-तत्त्वज्ञानका पुतलापणा मानती होवें, तब तो यह मेरा छोटासा लेख मात्र से ही विचारकर ? | क्योंकि तेरा लेख यह शास्त्ररूपसे नही है, किंतु तेरे को और तेरे आश्रित सेवकोको - शस्त्ररूप होनेवाला जानकरही, मेरेको यह कलम चलानी पडी ह. ॥
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॥ इति पंडितोंसे - मुनी हुई, मूर्तिपूजाका विचार |
|| अब नमोत्थका पाठ ॥
ढूंढनी - पृष्ट. ६५ ओ. १४ से - जो " नमोसिद्धाणं " पाठ पढना है इससे तो सर्व सिद्ध पदको नमस्कार है. और जो “नमोत्थुका " पाठ पढना है इससे जो - तीर्थकर, और तीर्थकर पदवी
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