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मूर्तिपूजा पंडितोंसे सुनी है.
भगवान्का नाम जपते है, तिस उद्देशसेही मूर्तिकीभी उपासना करते है. तूं किस वास्ते - कुतर्कों करके, वीतरागकी - भक्ति सें दूर होती है. ?
ढूंढनी - पृष्ट १९ ओ. ११ सें - कोइ पुरुष-- लोहेमें, सोनेका भाव करले कि, यह हे तो-- लोहेका दाम, परंतु मैं तो भावोंसे - सोना मानता हूँ. इत्यादि.
समीक्षा - तूंने जे पृष्ट ४८ ओ. ८ में-जीवरमें, महाबीर नामा निक्षेप करके, पैरामे पडनेका किया है, उस जीवरके भावसे, तूं जो महावीरका - नाम, जपती होगी, तब तो जरुर तेरा भाव-लोहेमें सोनेका, रखने जैसा हो जायगा । परंतु हमतो जे परम त्यागी वीतरागदेव हैं, उनकाही भाव करके - - नामसे भी, और आकृति से भी, जपते है, इस वास्ते - सोनेके भावमे ही सोना समजते हैं । अगर जो तूं वीतरागदेवका भावको -- लोहारूप ठहराती होवें, तब तो, ते कोही -- दुखदाई होगा, हम तेरेको कुछभी नही कहते है . -
|| अब पंडितोंसे सुनी हुई पूजा ||
ढूंढनी - पृष्ट ६१ ओ ६ से - और हमने भी बडे बडे पंडित, जो विशेषकर - भक्ति अंगको मुख्य रखते हैं, उन्होंसें सुना है कि, यावत् काल -- ज्ञान नहीं, तावत् काल - मूर्ति पूजन है, और कई जगह लिखाभी - - देखने में आया है. ॥
समीक्षा - पाठक वर्ग ! विचार करो कि, यावत्काल ज्ञान नहीं तावत्काल - मूर्तिपूजन है, बैशा ढूंढनी पार्वतीजीने, कई जगह शाखोंमें लिखा हुवा देखा है, और भक्ति अंगको मुख्य रखनेवाले पंडितों से भी सुना है । इससे यह सिद्ध हुवा कि, तत्वरहित लोकोको, मूर्तिपूजनभी, भगवानकी भक्ति प्राप्त करनेको एक परम
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