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ढूंढनीजीका-२ स्थापना निक्षेप. (६१) परंतु-सत्यार्थ पृष्ट. ७३ में-खास मिथ्यात्वी देव कि,जोपूर्णभद्र यक्ष, मोगरपाणी यक्ष, ऊंबर यक्षादिकोंकी-पथ्थरसे बनी हुई, जडरूप-मूर्तियांके आगे, हमारे ढूंढक श्रावक भाईयांके पाससे मस्तकको, जुकावती हुई, और उस जडरूप मूर्तियांकी षट् का. याका आरंभसें-पूजाको भी, करावती हुई, और संसारकी वृद्धिका हेतु, जो-धन, पुत्रादिक है, उनको भी-दिवावती हुई, यह ढूंढनीजी हमारे भोले ढूंढक श्रावक भाईयांको, न जाने किस खडडेमें-गेरेगी ? हमको तो उस बातका ही-बडा विचार, हो रहा है ।।
और सत्यार्थ पृष्ट. १२४ सें-कयबलिकम्माका पाठमें-अनेक प्रकारका, विपरीत विचारको-करती हुई, और पृष्ट. १२६ में टीकाकार,टब्बाकारोंने-किया हुवा, जिनप्रतिमा पूजनका-अर्थको, निंदती हुई, और ते वीरभगवान के परमश्रावकोका-नित्यकर्त्तव्यरूप जिनप्रतिमाका पूजनको-छुड्वाती हुई, छेवटये मिथ्यात्वी-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-जडरूप, पथ्थरकी-प्रतिमाका, दररोज पूजनको-करावती हुई, यह ढूंढनीजी, ते परमश्रावकोंको, नजाने किसगतिम-डालनेका, विचार-करेगी ? अथवा ढूंढनीही आप-किसगतिमें, जावेगी ? उसबातकाभी-हमको, बडा-विचारही, हो रहा है । .... क्योंकि जिनप्रतिमाका पूजनकरनेवाले-श्रावकोंको, ओर उ. पदेश करनेवाले.-गणधरादिक, सर्वमहापुरुषोंकोभी, ढूंढनीजीने-सत्यार्थ पृष्ट. १४७ में, और १४९ में-अनंत संसारीही लिखमारे है । देखो इसकी समीक्षा-नेत्रांजनके, प्रथमभागका--पृष्ट. १५७ से--१६७ तक ॥ परंतु जैनसिद्धांतोंमे तो भक्तिसेंजिन प्रतिमा, पू. जनका-फल, हित, सुख, और छेवटमें-मोक्षकी प्राप्ति होने तकका, श्रीरायपसेनी सूत्रमें, गणधर महाराजाओने-हियाए सुहाए नि
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