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ढूंढकभाईयांका संसारखाता.
विचार - यह ढूंढनीजी इस प्रकारसें, अपना परमपूज्य तीर्थक रॉकी ही परम पवित्र, मूर्त्तिका पूजनको, निंदती हुई । और खासजो मिथ्यात्वी क्रूर देवोकि, यक्ष, भूतादिक है, उनकी जड स्वरूपकी मूत्ति चेतनको, मनाती हुई । और षट् कायाका आरंभसें पूजाकोभी कराती हुई । और ते जड स्वरूपकी मूर्तियांके आगे, हमारे भोदू ढूंढक भाईयांका मस्तकभी घिसानेको तत्पर होती हैं ? | क्या उसका नाम संसार खाता, मान्या है ? ||१४||
॥ फिर. पृष्ट. ७५ में — ढूंढनीजीने लिखा है कि, १९ हम देखते है कि, सूत्रोंमें - ठाम ठाम, जिन पदार्थोंसें - हमारा विशेष करके, आत्मीय स्वार्थ भी - सिद्ध नहीं होता है, उनका विस्तार सैं कडे - पृष्ठों पर, (सुधर्म स्वामीजीने ) लिख धरा है । ऐसा लिखके - ज्ञाता सूत्रका, जीवाभिगम सूत्रका, और रायपसेनी सूत्रका भी को पृष्टों का मूलपाठोकोही, निरर्थक ठहराये है ।। १५ ।।
विचार – ढूंढनीजी प्रथम सर्व आचार्योंका लेखको निरर्थक रूप, गपौडे - ठहरायके, अब जैन शासनके नायक भूत, सुधर्मा स्वामीजीका लेखसें भी, अपना — स्वार्थकी सिद्धिको नहीं मानती हुई, केवल अपना ही शासनको प्रगट करके, ढूंढनीजी आप भवचक्र गोरती हुई, हमारे भोदू ढूंढक श्रावक भाइयांको भी, डुबानेको तत्पर हुई है ? | क्या इसका नाम संसार खातामान्या है ? ||
फिर. पृष्ट. १४४ में ढूंढनीजीने लिखा है कि- १६ तहा किल अम्हे - अरिहंताणं, भगवंताणं, गंधमल्लादि ॥
पृष्ट. १४५ में - अर्थ -तिम निश्वय कोई कहे कि मैं अरिहंत भगवंतकी मूर्त्तिका गंधि मालादि ॥ १६ ॥
विचार – इस महानिशीथ सूत्रका पाठमें, तीर्थकरों की मूर्ति
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