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ढूंढनीजीके-कितने क, अपूर्ववाक्य. (९) (३) पृष्ट. ३६ में-चीतराग देवकी, अलोकिक शांत मूर्ति को, जैनके मूल सिद्धांतोंमें, वर्णन करके वंदना, नमस्कार, कसनेवाले, गणधर महाराजा, सो तो सर्व भव्यात्माको मत [ मदिरा] पीलानेवाले।
और वंदना, नमस्कार, करनेवालेको मूर्ख ठहराये । और अ. पना थोथा पोथामें जगें जगेंपर जूठे जूठ लिखनेवाली, और अ. भीतक ढूंढनेवाली ढूंढ नीजी, सो तो बन बैठी पंडितानी ? ।। ३ ।।
[४] दृष्ट. ४३ में-वीतरागकी शांतमूर्तिको, वंदनादिक, करनेवाले, बाल अज्ञानी ॥ ४ ॥
ढूंढनीजीने, वीतरागकी मूत्तिके वैरीको तो, बनादिये ज्ञानी, क्या ! अपूर्व चातुरी प्रगट किई है ? ॥
[५] दृष्ट. ५२ में-सिद्धांतके अक्षरोंकी स्थापनासें ज्ञान नहीं होता है, ऐसा जूठा आक्षेप करके भी, कहती है कि तुम्हारी मति तो 'मिथ्यात्वने ' बिगाड रख्खी है, इत्यादि ॥ ५ ॥
॥ इसका निर्णय, हमारा लेखसें, मालूम हो जायगा ।।
[६] पृष्ट. ५७ में-बालककी लाठीकीतरां,अज्ञानीने, पाषा: णादिकका-बिंब, बनाके, भगवान् कल्प रख्खा है ॥ इत्यादि ।।६।।
॥ इस लेखमें, गणधरादिक सर्व जैनधर्मीयोंको, अज्ञानी ठहरायके, अबीतकभी ढूंढकरनेवाली ढूंढनी ही ज्ञानिनी बन बैठी है ? ॥
[७] पृष्ट. ६३ में-मूर्तिपूजक, कभी ज्ञानी न होंगे इत्यादि ढूंढनीजीने लिखा है ।। ७ ।।।
[८] दृष्ट. ६४ में-मूर्तिपूजना, गुडीयांका खेल ॥इत्यादि ।
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