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(२५२) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र.
॥ मूढ पुरुषो तत्त्व देखनेका उत्साह मात्र भी
नहीं धरते है ॥ ॥ केचिन्मूलानुकलाः कतिचिदपिपुनः स्कंधसंबंधभाजः छाया मायांति केचित् प्रतिपद मपरे पल्लवानुल्लवंति । पाणौ पुष्पाणि केचिद्दधति तदऽपरे गंधमात्रस्य पात्रं, वाग्वल्लेः किंतुमूढाः फल महह नहि द्रष्टु मप्युत्सहते॥१॥ ____ अर्थ-कितनेक मूढ पुरुषो हैसो, वाणीरूपी वेलडीका परमार्थको समजे बिना, मूल मात्रकोही-अनुकूल होके, अपनी पंडिताईको प्रगट करते है। कितनेक पुरुषो हैसो, ते वेलडीका, एकाद स्कंधरूप, ( अर्थात् एकाद विभागरूप ) पढ करके, उनका परमार्थको समजे बिनाही-अपनी पंडिताईको दूनीयामें प्रगट करते है । और कितनेक पुरुषो हैसो, ते वेलडीकी छाया मात्रका आश्रयको अंगीकार करते हुये, अपनी पंडिताईको प्रगट करते है। और कितनेक पुरुष हैसो, ते वेलडीका पल्लवोंकों-उच्चारण करते हुये, ( अर्थात् किसी जगेंका श्लोक तो, कीसी जगेंकी गाथा, छंद, दुहादिकका उच्चारण करते हुये ) अपनी पंडिताईको दूनीयामें प्रगट करते है । और कितनेक पुरुष हैसो, ते वेलडीके-पुष्पोंको, अपने हाथमें धारण करते हुये, ( अर्थात् बडे २ पोथे अपने हाथ मलेके बैठते हुये ) अपनी पंडिताईको दूनीयामें प्रगट करते है । और कितनेक पुरुष हैसो, ते वेलडीका गंध मात्रकाही पात्र बनते
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