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मिथ्याव खंडन-६ स्वाध्याय. (११) समाकित दृष्टि जीवने काजे, सुणज्यो नरने नारी । भविषण समजो हृदय मजारी। १ । ए टेक ॥ अत्तागम अरिहंतने होवें, अणंतर श्रुत गणधार । आचारजथी पूर्व परंपर, सो सदहें ते अणगाररे । भवियण समजो हृदय मजारी । २ ॥ भगवई पंचम अंगे भाख्यो, श्री जिनवीर जिनेस । भेष धरीने अवलो भाखे, करी कुलिंगनो वेसरे । भवि । ३ ॥ बाहार व्यवहारे परिग्रह त्यागी, बगलानी परें जेह । सूत्रनो अर्थ जे अवलो मरडे, थिथ्या दृष्टि कह्यों तेह रे । भवि । ४॥ आचारज ऊवजाय तणो जे, कुल गछनो परिहार तेहना अवरणवाद लवंतो, होसें अनंत संसाररे। भवि । १॥ महा मोहनी कर्मनो बंधक, समवायांगे भाष्यो। श्रुतदायक गुरुने हेलवतो, अ. नंत संसारी ते दाख्योरे । भवि । ६ ॥ तप किरिया बहु विधनी . कीधी, आगम अवलो बोल्यो । देवालविषे ते थयो ' जमाली' पंचम अंगे खोल्योरे । भवि । ७॥ ज्ञाता अंगे सेलग मुरिवर, पासथ्या थया जेह। पंथक मुनिवर नित नित नमतां, श्रुतदायक गुण गेहरे । भवि । ८।। कुलगण संघतणी वैयावच, करें निरजरा काजें। दशमें अंगे जिनवर भाखें, करें चैत्यनी साहजेरे । भवि । ९॥ आ. रंभ परिग्रहना परिहारी, किरिया कठोरने धारें। ज्ञान विराधक मिथ्या दृष्टि, लहें नहीं भव पारे । भवि । १०॥ भगवती अंगे पंचम शतकें, गौतम गणधर साखें । समफित विन किरिया नहीं लेखें, वीर जिणंद इम भाषेरे । भवि । ११ ॥ पूर्व परंपरा आगम साखें, सहहणाकरो श्रृद्धी । परत संसारी तेहने कहिये, गुण गृहवा जस बुद्धिरे । भवि । १२ ।। नव सातना भेद छे बहुला, तेहना भंग न जाणे । कदाग्रहथी करी कल्पना, हठ मिथ्यात्व वखाणेरे । भवि । १३ ॥ सम्यक् दृष्टि देवतणा जे, अवरण वाद न कहिये । ठाणा अंगे इणिपरी भाख्यो, दुरलभ बोधि लहियेरे । भवि । १४ ॥
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