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पंचमस्वप्न पाठार्थका विचार. (१५३) कितनेक भेषधारी-पतित होके, यह नहीं करनेका भी काम-करनेको लग जायगे, सो कालकाही-प्रभाव दिखाया है। जब निः पक्षपात से-विचार करोंगे तबतो-ढढंकोमें क्या, और मंदिर मागियोंमें क्या-यह दोनोंही पक्षमें, पतित भेषधारी, जितने चाहते होंगे-इतनेही मिल सकेंगे ? मात्र फरक इतना है कि द्वंद्वको को दुकानदारी, अथवा दूसरी दूसरी प्रकारकी-ठगाईयां करनी पडती है । और मांदर मागीयोंमें, जो इस स्वमके पाठमें कहा है सो, करना पड़ता है। परंतु जो सबके वास्ते कलंक देते हो सो तो तुम ढूंढको,केवल महा मायश्चित्तकाही अधिकारी बनते । हो ? । अब पा. ठार्थसे भी कुछ तात्पर्य दिखाव ते. हैं, देखो कि-यह पंचम स्वाम,जो सर्पका हुवा है, इससे बारा वर्षी दुःकाल पडेगा, और कालिकादि सूत्रों से विछेद होंगे, और-चैत्यकी स्थापना, करवाके-द्रव्य ग्रह णहार, मुनि होजायगे, और लोभ करके--मालारोहण, देवल, उपधान, उज्जमण, जिन बिंव प्रति स्थापन, विधिओ आदि करके, बहुतसे भेष धारीओ-तप प्रभावोंको प्रकाशेंगे, और ऐसे आवधि पंथमें, पड जायगे ॥
॥ अब इसमें विचार यह है कि-जो भेषधारी, लोभके वश होके-मालारोपण, देवल, उपधानादि-विधिओमें पडेंगे, सो अविधि पंथमें पडे हुये-गिने जायगे कि, सभीही दोषित गिने जायगे ? जैसे कि-जो साधुपणासे भ्रष्ट होंगे, सोई भ्रष्ट गिने जायगे कि-सभी भ्रष्ट गिने जायंगे ? ॥ अब इस लेखसे ढूंढकोंकी-सिद्धि हुई के, ढूंढकमतका पोकल जाहिर हुवा । जरा अंखियां खोलके देखो कि-जो मालारोपण, देवल, उपधान, उज्जमण, जिन विब ( मूर्ति ) (प्रतिमा स्थापना,) विगरे-कार्योंका विधिसे करना
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