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________________ ( १५४), पंचमस्वम पाठार्थका विचार. चला आता है,उसको-लोभके वस होके,करनेकी-मना,किई है परंतुधर्मकी बुद्धिसे तो करना उचितही दिखाया है । और विधिसे तो करना-शास्त्रसे सम्मतही है । केवल तुम ढूंढकोही अपने आप जैन धर्मसें विपरीत होके विधिओं का भी विपरीतपणा करनेको चहाते हो परंतु यह सर्व प्रकारकी विधिमार्गका तो, तीन कालमेंभी विपरीतपणा होनेवाला नहीं है, और वर्तमान कालमें भी, जब तक वीर भगवान्का शासन रहेगा, तब तक यह विधिमार्ग भी रहेगा। विशेष इतनाही है कि-जो भेषधारी-पतित होगा, सोही-पतित, गिना जायगा । इसी वास्ते मूलपाठमें भी-( बहवे ) अर्थात् बहुतसे-पतित होंगे, वैसा कहा है, परंतु सभी ऐसा आवधि पंथमें कभी न पड़ेंगे। अगर तुम ढूंढको-अपने आप मनमें मान लेते होंगे कि-सब विधिवाले हमही रहें है, परंतु तुम तो मालारोषणही-नही समजतेहो, इसी वास्ते ही मूर्तिके गलेमें, गेरना लिखते हो ? ।। और न तुम्हारेमें-देवल है,न उज्जमण है,न जिन विंबकी स्थापना है,तो फिर तुम, विधिवाले कैसे बन सकोंगे ? । केवल जैनाभास स्वरूपके बने हुये हो ? क्योंकि-जहां यह विधि करने वाले है, उहाही-अविधिवाले होते है, परंतु तुम ढूंढको तो-कोईभी, रीतिविधिवाले नहीं बनते हो, इसी वास्ते कहते है कि तुम जैनाभास स्वरूपके बने हो! ॥ और जो यह कुतर्क किई हैं कि-मंत्रका सुनानेवाला-मूर्तिका गुरु, हुआ, सोभी अज्ञपणेही कोई है ! क्योंकितुम ढूंढकोको, व्याकरण पढानेवाला ब्राह्मणभी होता है सो और सूत्रादिक पढानेवाला श्रावकभी कभी होता है सो, तुम्हरा गुरु बन जायगा ! जबतो तुमको, और तुम्हारे सेवकोंकोभी, इछामि खमासमणकी साथ, वंदना उनकोंही करनी पडेगी ? तुमको किस वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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