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टुंढकभक्तानिन-त्रणे पार्वतीका १ नाव निक्षेप. (५१) दि । उस नाम मात्र के दो चार अक्षर में तो, तेरा गुरुमीका साक्षात् स्वरूपवाला-भाव निक्षेप, गुसड गया, जिससें तूं-वंदुना, नमस्कार, करनेको लग गया। ___और जो तेरा गुरुजीका ही साक्षात् स्वरूपको-बोध कराने वाली, तेरा ही गुरुजीकी-मूर्ति है, उसमेंसें तेरा-भाव निशेष, कहां चला जाता है ? | जो तूं तेरा ही गुरुनाकी, साक्षात् स्वरूप की-मूर्तिको, वंदना, नमस्कार करनेकी भी-ना पाडता है ? ॥ ___क्योंकि-एक नामके तो, अनेक पुरुष, रहते है, उसमें तो गफलत, होनेका भी-संभव, रहता है। परंतु साक्षात् स्वरुपकी मूर्तिसें तो, इछित पदार्थका-बोधके शिवाय, दूसरी वस्तुकी भ्रांति होनेका भी संभव नहीं है । इस वास्ते विचार कर ? ॥ - ढूंढक-हे भाई मूर्तिपूजक, तेरा कहना सत्य हे कि-जिस वस्तुका-दो चार अक्षरके नाम मात्रको, उच्चारण करके-चंदना, नमस्कार, करते होवें, उनकी मूर्तिको, देखके-वंदना, नमस्कार, करना । सो भी-योग्य ही मालूम होता है । इसी वास्ते हमारे समुदायके लोक, ढूंढक गुरुओंकी-मूर्तियां, खिचवाते है। परंतु उस मूर्तियांपर-पाणी, गेरके, और-फल फूल चढायके, पापके बंधनमें पडना, उसका-विचार तो, तुम लोकोंको ही-करनेका है, हम तो ऐसी-बातको, नहीं चाहते है।
मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक, इहांपर थोडीसी निघा करके देख कि-हम-तीर्थकर, गणधरादि, महा पुरुषों के, भक्त है। और हमको-उनकेपर, परम विश्वास भी है।
और जो कुछ उनोंने कहा है, सो हमारा-हित, और कल्याण के वास्ते ही-समनते है । और उनोंके-कहने मुजब ही, कार्य
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