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ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप.
करणेकी श्रद्धा, हमेसा रखते है । और उस कार्य में - विधि सहित प्रवृत्ति होनेसें, हमारा निस्तार होगा, यह भी निश्चय करके ही, मानते है । इसी वास्ते हम - मूर्त्तिद्वारा, तीर्थकरोंकी - भक्ति, करते
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1 सो- जिन मूर्तिका पूजन, जैन सिद्धांतों में जगे जर्गे पर, दिखाया हुवा है । अगर जो तूं तेरी स्वामिनी पार्वतीजीका लेख परसें भी विचार करेगा, तो भी तेरा हृदय नयनको वडा प्रकाश ही, दिख पडेगा । तेरी स्वामिनीजी को विपरीत विचारमें, कुछ समज नहीं पडी है | इसी वास्ते ही अगढं बगडं, लिखके दिखाया है । परंतु जो में- नेरेको फिर भी आगेको, सूचनाओ करके दि खाता हुँ, उस तरफ ख्याल पूर्वक विचार करेगा, तब तो वीतराग देवका - सत्यरूप मार्ग, अपने आप - तेरेको हाथ लग जायगा । अगर जो अज्ञताको, धारण करके, हठ पकडके - जायगा, तब तो साक्षात् - सर्व तीर्थकरो भी, तुमको न समजा सकेंगे । तो पिछे मेरे जैसेंकी - क्या ताकात है, जो समजा सकेंगे ? तो भी भव्य पु रूपों के हित के लिये, ते सूचनाओं लिखके दिखाता हुं, सो अ aruna - लाभदायक होंगी । वश्यमेव
प्रथम देख - सत्यार्थ पृष्ट. ८ से - ढूंढनीजीने, लिखा है कि-काष्ट, पाषाणादिकी - इंद्रकी मूर्ति, बनाके बंदे, पूजे, धन, पुत्रादिक, मागे । वह - जड, कुछ जाने नहीं, ताते शून्यहै । अर्थात् कार्य साधक, नहीं । इत्यादि ॥
पुनः पृष्ठ. १५ सें - ऋषभदेव भगवानकी, मूर्त्तिकोभी जडपदार्थ कहकर के पृष्ट. १६ में निर्थक, ठहराई ॥
परंतु पृष्ट. ७३ में - पूर्ण भद्रादिक यक्षोंके, पथ्थरकी- मूर्तिपूजा से, हमारेभोले ढूंढकभाईओं को धन, पुत्रादिककी - पातिसें सार्थकी
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