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मूर्तिपूजन-व्यवहारिक कर्मः .
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१९८) वतारों की नहीं है-इसका प्रमाण तो कुछ लिखा नही है ? और चोवीश अवतारोंकी " मूर्ति पूजनका " प्रमाण तो तेरा ही थोथा मोथामें--जगे जगें पर सिद्ध रूपही पड़ा है। प्रथम देख-पृष्ट. १४७ का सूत्र पाठ ॥ जिण पंडिमाणं भंते, वंदमाणे, अच्चमाणे । इंता गोयमा, वंदमाणे, अच्चमाणे, इत्यादि ।। पृष्ट. १४८ सें तेराही अर्थ देख-हे भगवन् जिन पडिमाकी-चंदना करे, पूजा करे, हां गोतम-वांदे, पुजे ॥ यह तेरा ही लेखसे तीनो चोवीसीके-धर्मावतारोकी-मूर्तिका पूजन सिद्धरूप, ही है ॥ ' और दूसरा प्रमाण भी देख-पृष्ट. ६१ में-तूंने ही लिखा है कि-बडे बडे पंडितोंसे सुना है कि--यावत्काल ज्ञान नही तावत्काल-मूर्ति पूजन है ! और कइ जगह, लिखा भी देखने में आता है। यह लेख भी तो तेरा हाथसें ही-तूंने लिखा है । केवल तूं, विचार मूढ-हो गई है ।। और इनके सिवाय १ महा निशीथ सू त्रका पाठ । २ उपाशक दशा सूत्रसें-आनंद काम देवादिक महा श्रावकका पाठ । और ३ उवाइ सूत्रसें-अंबड परिव्राजकका पाठ ॥ ४ ज्ञाता सूत्रसें-द्रोपदी महा सतीजीका पाठ । और ५ भगवती सूत्रसे-जंघा चारणादिका पाठ ॥ इत्यादि । जगे जगे पर तूंने लिखा हुवा, तेरा ही थोथा पोथामें--जिनमूर्तिका अधिकारको, प्रगटपणे दिखा रहा है परंतु कोइ मिथ्यात्वरूप-कमलाका रोग होनेसें, अब तेरेको-विपरीतरूप ही हो गया है, तो अब दोष के कारणसे कैसे मिट जायगी ? हम अनुमान करते है कि, ढूंढनीको उत्तम प्रवृत्ति उठानेका तो भय-शेश मात्रभी नही है. परंतु उसवख्त श्री आत्मारामजी बावाका भयसे-वैसा लिखा होगा ? अब बावाजीका भयभी छोडके, अनादि सिद्ध जिनमूर्तिका खंडन करनेको, प्रबल पापके उदयसे प्रवृति किई है. परंतु यह विचार न
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