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पूर्ण भद्रादि-यक्षोंका, पूजन.
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किया कि, बावाजी तो चला गया है, परंतु बावाजीके मुंडे हुये - बावाजी तो बैठे है. सोभी यह मेरी कागजकी- गुडीयां, कैसें चलने देंगे ?
॥ इति मूर्तिपूजन - व्यवहारिक कर्मका, विचार ||
|| अब पूर्ण भद्रादि यक्षोंका - पूजन विचार ||
ढूंढनी – पृष्ट ७४ ओ. ८ से - वह जो सूत्रों में- 'पूर्णभद्रादि यक्षों के 'मंदिर' चले है सो, वह यक्षादि - सरागी देव, होते हैं । और वलिबाकुल आदिककी - इछा भी रखते हैं । और रागद्वेषके प्रयोगसे - अपनी 'मूर्तिकी' पूजाsपूजा देखके, वर, शराफ, भी देते हैं। ताते हर एक नगरके बहार - इनके 'मंदिर' हमेशां से चले आते है, सांसारिक स्वार्थ होनेसें । परंतु मुक्ति के साधनमें - मूर्त्तिका पू· जन, नही चला । यादे जिनमार्गमें- जिनमंदिरका पूजना, सम्यक्त्व धर्मका लक्षण होता तो, सुधर्म स्वामीजी अवश्य सविस्तार प्रकट सूत्रोंमें, सर्व कथनों को छोड, प्रथम इसी कथनको लिखते.
१ उब्वाईजी में - पूर्णमद्र यक्ष के मंदिर, उसकी पूजाका, पूजाके फलका, धन संपदादिकी प्राप्ति होना, सविस्तर वर्णन चला है | और अंतगडजीमें-- मोगर पाणी यक्षके - मंदिर पूजाका, । हरिणगमेषी देवकी - मूर्त्तिका पूजाका । और विपाक सूत्रमें -- ऊँबर यकी - मूर्त्तिमंदिरका, और उसकी पूजाका फल - पुत्रादिका होना, सविस्तर वर्णन चला है । यहभी ढूंढनी काही लेख. पृष्ट ७३ सें लिखा है | और यह सर्व मूर्तियों को, और मंदिरोंकोभी, “ चैत्य" शब्द करकेहि, मायें - सूत्रोंमें लिखा गया है. जैसें कि- पुण्णभद are इत्यादि.
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