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(४४) दूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. द्वेषभाव करके, अपना लेखका भी पूर्वाऽपरके विचार किये बिना, जो मनमें आया सो ही-लिख मारा है । परंतु हेय १ । ज्ञेय २ । और उपादेय ३ । के स्वरूपसें, पूर्व में दिखाई हुई हमारी युक्तिके प्रमाणसे-जैन सिद्धांतकारोंके मंतव्य मुजब, स्थापनानिक्षेप-निरर्थक रूपका नहीं है, सो तो अपनी अपनी वस्तु स्वभावका-ता. दृश बोधको कराता हुवा, आत्माको ते ते वस्तुओंका गुणोंकी त. रफ, विशेषपणे ही लक्ष कराता है . इस विषयमें-प्रमाण देखो-सत्यार्थ पृष्ट. ३५. में-ढूंढनी ही लिखती है कि-हां हां सुननेकी अपेक्षा (निसवत ) आकार (न. कसा ) देखनेसें-ज्यादा, और जल्दी, समन-आती है, यह तोहम भी मानते है।
अब ढूंढनीजीका-इस लेखसे, विचार करनेका यह है कि-जब मूर्तिपूजनमें, कुछ विशेष ही नहीं था, तब तो पूर्ण भद्रादिक यक्षोंका-नाम स्मरण मात्रसें ही, ढूंढकोंको-धन, पुत्रादिककी प्राप्ति, ढूंढनीजी-करा देती, किस वासे यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी मूर्तिका पूजनमें-आरंभ, कराती हुई-धन, पुत्रादिक, प्राप्ति होने का-लिखके, दिखाती है ? ___और यह भी विचार करो कि ढूंढनीजीका ही लेखसें, मूतिको-वंदना, नमस्कारादि-करनेका, सिद्ध होता है कि नहीं ? - अगर जो यक्षादिकोंकी जड स्वरूप मूर्तिको-वंदना, नमस्कारादिक, न करावेगी-तो पिछे, ढूंढकोंको-धन, पुत्रादिककी-प्राप्ति भी किस प्रकारसे करादेवेगी ?
जब ढूंढनीजी-यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी-मूर्त्तिका, आरंभवाला पूजन, और वंदना, नमस्कारादिक-करानेको उद्यत हुई है।
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