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ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. (४३) निरर्थक ठहरानेका, प्रयत्न किया है ।। देखो सत्यार्थ पृष्ट ८ में यथा-काष्ट, पीतल, पाषाणादिकी-मूर्ति, बनाके स्थापना करलीकि यह मेरा-इंद्र है, फिर उसको वंदे, पूजे, उससे, धन, पुत्र, आदिक मांगे, मेला, महोत्सव करें । परंतु वह जड-कुछ जाने नहीं, ताते शून्य है । अज्ञानताके कारण उसे-इंद्र, मानलेते है। परंतु वह-इंद्र नहीं, अर्थात्-कार्यसाधक नहीं ।
इस प्रकारसे ढूंढनीजी-पथम इंद्रकी मूर्तिको, निरर्थक-उ. रायके, पिछे-पृष्ट १५-१६ में ऋषभ देवजीकी-मूर्तिको, जडपणा दिखलायके निरर्थकपणा, दिखलाया है।
और-७३।७४ में-पूर्ण भद्रादिक यक्षोंके पथ्थरकी मूर्तिसें, ढूंढक श्रावकोको-धन, पुत्रादिककी, प्राप्ति कराती हुई-स्थापना निक्षेपको, सार्थकरूप करके, दिखलाती है । तो अब ढूंढनीनीको तीर्थंकरोंकी भक्तानी समजनी, कि, यक्षोंकी ? उनका विचार वाचक वर्ग ही करें ? ॥
.. ढूंढक हे भाई मूर्तिपूजक-जब पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी-प. थ्थरसें बनी हुई, जडरूप मूर्तिकी पूजासे-धन, पुत्रादिककी, प्राप्ति होनेसें-सार्थकपणा है, तब तो-इंद्रादिकोंकी पाषाणादिकसें बनी हुई, जहरूप-मूर्तिकी पूजासें भी, अवश्य ही कार्य सिद्ध होनाचाहिये, क्योंकि-सरागीपणा जैसा पूर्ण भद्रादिक यक्षोंमें है, तैसा ही सरागीपणा-इंद्रमें भी है, तो पिछे हमारी ढूंढनीजीने-इंद्रकी मूर्तिकोजडरूप, कहकर, और निरर्थकपणा ठहराय करके, सर्व वस्तुकास्थापना निक्षेप, निरर्थकरूपसें, क्यों ठहराया होगा ? सो कुछ मेरी समजमें-आया नहीं है ॥ . मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-ढूंढन जीने तो वीतरागी मूर्ति सें
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