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ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणे पार्वतीका-२स्थायनी निक्षेप. (४५) तो पिछे, जिनेश्वर देवकी मूर्तिके-भक्तोंको, सत्यार्थ पृष्ट. १७ मेंजड पूजक, पणेका, जूठा विशेषण-क्यौं देती है ? क्यौं कि, ढूंढनी ही-यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी, पाषाणादिकसें बनी हुई-जडरूप मूर्तिका पूजन, कराती हुई, बेसक जड पूजक पणेका-विशेषणके लायक, हो सकती है । परंतु हम जिन मूर्तिके भक्त-इस विशेषणके योग्य, कैसे हो सकते है ? ॥ . और सत्यार्थ पृष्ट ६७ में-ढूंढनीजीने लिखा है कि पथ्थरकी मूर्तिको धरके, श्रुति लगानी नहीं चाहिये ।
इस लेखसे विचार यह आता है कि वह यक्षादिक देवोंकी मूर्ति भी पथ्थरसें ही बनी हुई होती है, और उस मूर्तियांकी पूजासे, ढूंढनीजीने--धन पुत्रादिक प्राप्ति होनेका भी दिखाया है, जबतक ढूंढनीजी भोंदू ढूंढकोंकी पाससे उस मूर्तियां में-श्रुति मात्र भी लगानेको न देवेगी, तबतक-धन, पुत्रादिक, वस्तुकी प्राप्ति भी किस प्रकारसे करा सकेगी ?॥ - फिर पृष्ट ५७ में लिखता है कि उसको [ अर्थात् मूर्तिको ] हम भी भगवान्का आकार कहदें, परंतु-चंदना, नमस्कार तो नहीं करें । और लडडु पेंडे तो अगाडी नहीं धरें। - इस लेखसे भी विचार करनेका यह है कि-अदृश्य स्वरूपके जो यक्षादिक देवताओ है, उनोंकी कल्पित पथ्थरकी मूर्तियांको वंदना, नमस्कार, करना और लडडु पेडे भी चढानेका हमारे ढूंढक भाईयांको सिद्ध करके दिखलाती है, और परम ध्यानमें लीनरूप तीर्थंकरोंका साक्षात् स्वरूपका आकारको-वंदनादिक करनेका भी, ना पाडती हैं तो क्या तीर्थकों के धर्मका सनातपणा इसी प्रकारसें चला आता है ? ॥
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