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( ४६ ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीकी-२ स्थापना निक्षेप.. ___ और सत्यार्थ पृष्ट ३६ में-ढूंढनीजी लिखती है कि उस आकार [ नकसे ] को-वंदना, नमस्कार, करना यह मतवाल तुम्हें किसने पीलादी ॥
- यह जो लिखा है सो भी यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंका भयंकर आकार को-वंदना, नमस्कार, और आरंभवाला पूजनसें-धन, पुत्रादिककी, प्राप्ति करानेको उद्यत हुई, यह ढूंढनी ही-मतवाल पीलाने वाली सिद्ध होगी के-मिनेश्वर देवका आकारकी भक्तिको दिखाने वाले, सिद्ध होंगे? . ___ उसका विचार तो-जैन धर्मका अभिलाषियांको ही करनेका है ? अब इस दिग् मात्रका लेखसे ख्याल करनेका यह है कि मूर्ति मात्रको निरर्थक ठहराने के लिये दूंढनीजीने जो जो कुतकों किई है सो सो-हेय १, ज्ञेय २, और उपादेय ३ । वस्तुओंकी मूर्तियांको विशेषपणेका विभागको. समजे विना, अगडं बगडं लिखके, भोले जीवोंको वीतरागी मूर्तिकी भक्तिसे-भ्रष्ट करनेको, जूठका पुंज भेगा किया है परंतु जैन सिद्धांतकारोंकी शैलीका अनुकरण किंचित् मात्र भी किया हुवा नहीं है। ____ और हम वीतराग देवकानिर्मल सिद्धांतोके लेखस, विचार करके देखते है तबतोयही मालूम होता हैकि-अपना अपना उपादेय वस्तुका, जो-नाम निक्षेप है, उसेंभी उसका स्थापना निक्षेप (मूर्ति ) है सो, सारी आलम दूनीयांका विशेषपणे ही-ध्यान खेच रही है, और उस प्रमाणे दूनीयाको वर्तन करती हुईभी प्रगटपणे देखते है । मात्र मूढताको धारण करके-कोई कोई समाज, मुखसेही ना मुकर जाता है । परंतु विचारशील समाज है सो तो-हेय १। ज्ञेय २। और उपादेय ३की । वस्तुके स्वरूपसे-नामनिक्षेपको,
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