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शिवभक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका २ स्थापना निक्षेप. ( २५ )
और शिवजीकी - पार्वतीजीका नाम निक्षेपको, ३ उपादेयके स्वरूपसें— मानता है । और अपना सुख दुःखादिकके प्रसं गमें- उसी ही पार्वतीजीका - नामको, स्मरण करता है । और मुखसें उच्चारण भी करता है कि - हे पार्वतीजी, हे पार्वतीजी, इत्यादि
और कुछ भी अपनी - शांति, मानता है । जैसे कि - कोइ पुरुष अपनी - जनेताका प्रेमी, माताकी-घेर हाजारीमें, अथवा सर्वथा प्रकार के अभाव में, सुख दुःखादिककें प्रसंग में- हे अम्मा २ ऐसा तो पंजाबी । हे मा २ ऐसा गुजराती, अथवा मारवाडी । और हे आई २ ऐसा तो दक्षिणी, उच्चारण करके, अपना दुःखादिकके प्रसंग - विश्रांति, मानता है। तैसें ही सो शिवजीकाभक्त, ईश्वर पार्वतीजीका नाम निक्षेपको, उच्चारण करके, अपना दुःखादिककी कुछभी - विश्रांति, मान रहा है । सो केवल नाम निक्षेपका, विषय ही, मान रहा है । इति शिव भक्त, आश्रित पार्वतीका प्रथम - नाम निक्षिपका, स्वरूप ||
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अब इस ही शिवभक्त, आश्रित व पार्वतीजीका, दूसरा स्थापना निक्षेपका, स्वरूप दिखाते है
सोही शिवजीका भक्तने-शोलें श्रृंगारसें सज्ज किई हुई, और अखीयांके चालाका दवाब है जिसमें, ऐसी – बेश्या - पार्वतीकी, आकृति ( अर्थात् मूर्त्ति ) को देखके, अपनी मुख नाशिका का - विभत्सपणा करके, कहता है कि ऐसी पापिणीयां, जगत में क्यौं जन्म लेतीयां होगी ? ऐसा कहकर, उस मूर्त्तिकी, अपभ्राजना ही करता है। और फिर उनकी तरफ - दृष्टिभी नही देता है, क्योंकि उनको कामके तरफ - बिलकुल, लक्षही नहीं है । केवल शिवपार्वतीजी, भजनमें ही मीति लग रही है । इस वास्ते
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