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( २४२) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्रः .
यह है कि- जैन सिद्धांतोंके बचन सहस्त्र धारा रूप, अथवा लक्ष धारा रूप, महा गंभीर स्वरूपसें-गणधर महा पुरुषोंने, गूंथन किये हुये है । और-उस महा गंभीर वचनोंमें, रह्या हुवा अति सूक्ष्म विचार, कोइ २ महा पुरुष, सद्गुरुकी कृपाका पात्र, और विचार चतु मुख, होते है सोही-अपनी अपनी योग्यता मुजब, बारिक दृष्टि से देख लेते हुये । ते महा पुरुषो उस सिद्धांतोंका वचनके अनुसारसे, भव्य प्राणियों के हितके लिये-योग्य अर्थ, नियुक्तियांमें, और भाष्योंमें, और आगे उनकी टीकाओ आदि प्रकरण ग्रंथोंमें, लिखके दिखला गये है । और छेवटमें-ते महा पुरुषोभी कह ते गये है कि, एकैक सूत्रमें-अनंत अनंत अर्थ, रह्या हुवा है । हम कहांतक लिख लिखके दिखावेंगे ? ॥ , इस वास्ते-नतो निर्यक्तियां, निरर्थक है। और नतो-भाष्यों, निरर्थक स्वरूपकी है । और नतो सिद्धांतोंकी-टीकाओ, निरर्थक है । और नतो जैन के प्रकरण ग्रंथो, निरर्थक रूपके
है । महा पुरुषोंके किये हुये-ग्रंथोंमेंसें, एक भी ग्रंथ निरर्थक - नहीं है ॥ ___और जो दूसरे साधारण मत वाले है उसमें भी यह बात, प्रसिद्ध है कि- टीका गुरूणा गुरुः । अर्थात् टीका है सोगुरुका भी गुरु है । उस टीका के बिना, आज कलके-साधारण बोध वालेसे, कबी भी योग्य अर्थ नहीं हो सकता है । प्रथम देखो आज तक तुमेरे ढूंढकों के ग्रंथोमें, कितनी सत्यता आइ है ? तो पिछे उनके उपदेशमें सत्यता कहांसें आने वाली है ? सो प्रथमसे विचार करते चले आवो, पिछे महा पुरुषोंको दूषित करो ? । नाहक आप भवचक्रमें डुबते हुये, दूसरे भव्य प्राणियांको-किस वास्ते डोवते
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