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सावृधाचार्य-और ग्रंथों. (१४५ ) उस महाचार्योको, तेरा जितनाभी विवेक नही था? और क्या तूंही विवकिनी जन्मी पडी है ! हे ढूँढनी ! इतना गुरुद्रोहीपणा क्यों करती है ? फिर कहती है कि-माल खानेको मनमाने-गपौडे, लि खघरे है-निशीथ भाष्यवत् ,उन्हें विद्वान् कभी नहीं प्रमाण करेंगे। इस लेखसे मालूम होता है कि-इस ढूंढनीको, आज तक खा. नेको कुछ माल--मिला न होगा, परंतु, गप्य दीपिका, निकालने पर, माल-बहुत मिलने लगा होगा, वैसा अनुमान होता है । उसीही माल खानेकी लालच करके-यहभी 'गपौडे, लिखकर, प्रगट करवाया होगा ? । नहीतो क्यों कहती कि-मालखानेको लिखधरे है। और इस लेखमें, इतना अछा किया है कि-गणधर म. हाराजाओको, इस कलंक से-बचाये है, अगर कलंक दे देती तो, तुच्छरूप स्त्री जातीको,कहतेभी क्या ! और दूंढपंथिनी-निशीथ भा. ज्यको 'गपौडे. कहकर ' कहती है कि, विद्धान् कभी नहीं-प्रमाण, करेंगे. । परंतु इस ढूंढनीको यह मालूम नहीं है कि-विद्वान् पुरुषो तो आजतक निशीथ भाष्यका एकैक वचनको-शिरसा वंद्य करके, मानते आये है, और आगेभी-मानेगे, केवल तुम ढूंढको कोही, विधाताने इस महा ग्रंथका अधिकार नही देके, केवल मूढता रूप पाषाण दिया है, सो इधर उधर फगाया करतेहो..॥ फिर ३२ मुत्र के बिना, दूसरे ग्रंथोंको सावधाचार्य रचित कहती है. ॥ हे एंटनी ! जिस ढूंढकोंका-फजिता प्रगटपणे, हो रहा है, सो तो-निरबद्याचार्य, और आजतक जिनोने जैन शासनको सूर्यकी तर प्रकाशमान किया, और जिनोंके गुणोंमें रंजित हुई " सरस्वती" देवी साक्षातपणे वश हुई है, ऐसे अनेक महापुरुषों, सो तो-सायद्याचार्य, ऐसा लिखती हुइ-तेरी गुरु द्रोहिणीकी, लेखनी स्तंभित क्यों न हुई ? ॥ फिर लिखती है कि-जिन ग्रंथोंके माननेसे, बीत.
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