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मृतिमें-चारनिक्षेप. ॥ इति आत्मारामजी बूटेरायजी ॥
॥ अब मूत्तिमंचार निक्षेप ॥ ढूंढनी-पृष्ट २८ ओ. १५ से-मूत्ति-भगवानके चारों नि. क्षेपे ' उतारके दिखाओ. इत्यादि ।
समीक्षा-हे सुमतिनि ! अभीतक तेरेको निक्षेपका अर्थही समजा नहीं है, इसी वास्ते कुतर्को कर रही है । जो निक्षेपोंका-अर्थ, समजी होनी तो, एसी एसी कुनकों करतीही किस वास्ते ? देख सूत्रपाठसे-निक्षेपोंका अर्थ कि,-वस्तुमें, प्रचलित वर्णसमुदायमात्रसें, संज्ञापणाको, आरूढकरना, उसका नाम 'नामनिक्षेप' है. १ ॥ और वस्तुको, दश प्रकारमेंसे किसीभी दूसरी प्रकारकी वस्तुमेंआकृति, अनाकृति रूपे, स्थापित करना उसका नाम ' स्थापनानिक्षेप' है. २॥ और जो वस्तु कार्यरूप है; उनका पूर्व अपरकालमें जो कारणरूप स्वभाव है, उसमें कार्यरूप वस्तुका, आरोप करना, उसका नाम 'द्रव्यनिक्षेप' है. ३ ।। और जो वस्तु, वस्तुरूपमें स्थित होके, अपणी क्रिया प्रवृत्ति करती है सो भावनिक्षेप है. ४ ।। जब शास्त्रकारने निक्षेपोंका अर्थ-ऊपर लिखे मुजब किया है। तब तूं हमारी पाससे मूर्तिमेही, भगवान्का चारों निक्षेप, कैसे कराती है ? क्योंकि-मूर्ति तो, हमने, भगवान्का, केवल एक 'स्थापनानिक्षेप' ही किया है । तूं कहेगी कि-ऋषभदेव, आ. दिका ' नामभी' देते हो, तो ' नामनिक्षेपभी' तो मूर्तिमें रखतेही हो, हे विचार शीले ! नाम देते है सो तो, उस वस्तुकीही, यह मूति, स्थापित किई है, उनका पिछान करनेके वास्ते है। और 'नामनिक्षेप' तो नाभिराजाका 'पुत्ररूप वस्तुमें' यावत् कालतकका
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