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( १८ )
|| प्रस्तावनाकी समाप्ति ॥
केवल गणधरादि महापुरुषों के ही - वचनोंका आश्रय अंगीकार करना ? यद्यपि ढूंढक पंथमें - बहुतेक साधु, और श्रावक, बडे २ बुद्धिमान भी हुये होंगे, और वर्त्तमान कालमें भी होंगे । परंतु गुरु परंपराका ज्ञानके अभाव सें, आजतक नतो कोइ निक्षेपोंकी दिशा मात्रको समजा है | और नतो कोई नयोंकी दिशा मात्रका भी 1 विचार कर सक्या है । केवल दया दया मात्रका जूठा पोकार करते हुये, और जैन धर्मके सर्व मुख्य ३ तत्वोंको विपरीतपणे ग्र हण करते हुये, वीतराग देवकी परम भव्य मूर्तियांको, और जैन धर्मके धुरंधर सर्व महा पुरुषोंको, निंदते हुये । गुरुद्रोहीपणे का महा प्रायश्चित्तकोही उठाते रहे है । उनोंकी दयाकी खातर, और भव्य जीवोंके उपकारकी खातर हमने दो ग्रंथ बनानेका परिश्रम उठाया है सो - सत्यार्थ चंद्रोदय - और सत्यार्थ सागर - और धर्मना दरवाजा || आदि ढूंढक ग्रंथोंमें लिखे हुये - चार निक्षेप, और-सात नयादिक, विचारके साथ, हमारा लेखको मिलाके देख लेना । और भव भव में आत्माका घातक, दुराग्रहको छोड करके, योग्य बातपर लक्ष लेना ॥ इति अलमधिक प्रपंचेन ॥
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सूचना - पाठकगण ! हमारी मूलभाषा गुजराती है परंतु पंजाबी लोकोंकी असा प्रेरणासें, और हिंदी भाषाके लेखका उत्तर होनेसें, हमको भी हिंदी भाषा में ही लिखना पडा है, सो किसी स्थानमें यत् किंचित् भाषा दोष हुवा हो तो क्षमा करके, मात्र तही लक्षको करना । और छापावालेकी गफलत हुई हो तो उनको भी समालके वाचना ||
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लि. मुनि अमरविजय, सं. १९६६ कार्त्तिक मास १९
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पुना ।
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