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ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. (१७) हे ढूंढनीजी ? इसमें भी ख्याल करना कि-जब तूंने जैनधमके तत्वोंसें-विपरीत लेखको लिखा, तब ही जैनधर्मसें विरोध रखनेवाले-ते पंडितोंने, तेरी प्रसंसा कीई ? इस बातसें तूंने क्या जंडा लगाया ? । पाठकगण ! इस जाहीरातमें-ढूंढनीजीने-प्रथम यह लिखा है कि-सूत्रप्रमाण, कथा, उदाहरण, युक्ति आदिसे, हस्तामलक करानेमें कुछ भी बाकी नहीं छोडी । ___ इसमें इतनाही विचार आता है कि-आजतक जो जो जैन धर्मके-धुरंधर महापुरुषों हो गये सो तो-सूत्रादिक प्रमाणोंसें हस्तामलक करानेमें सब कुछ बाकी ही छोड गये है। केवल--साक्षात्पणे पर्वत तनयाका स्वरूपको धारण करके इस ढूंढनीजीने ही-कुछ भी बाकी नहीं छोडा है ? । हमको तो यही आश्चर्य होता है कि, इस ढूंढनीजीको-जूठा गर्वने, कितनी बे भान बनादी है ? । ____ क्योंकि ढूंढनीजीने-जैनधर्मके तत्त्वकी व्यवस्थाका नियमानुसार-एक भी बात, नहीं लिखी है । तो भी गर्व कितना किया है ? सो हमारा लेखकी साथ विचार करनेसें-पाठक वर्गको भी मालूम हो जायगा।
और हम भी उस विषयके तरफ वखतो वखत पाठक वर्गका किंचित् मात्र ध्यान खेचेंगे। और ढंढनीजीकी कुयुक्तियांको, तोड. नेके सिवाय, नतो अशुद्धियांकी तरफ लक्ष दिया है । और नतो पाठाडंबर करके-वांचनेवालेको कंटाला उत्पन्न करनेका विचार किया है । केवल श्री अनुयोग द्वार सूत्रके वचनानुसार-चार निक्षेपका, यत् किंचित् स्वरूपको ही-समजानेका विचार किया है । सो विचार करनेवाले-भव्य पुरुषोंको, हमारा यही कहना है किआजकालके नवीन पंथीयोंके विपरीत वचनपर आग्रह नहीं करके,
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