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तीर्थंकरादिक निंदक, माधव ढूंढक
( ३३ )
पुनः पृष्ट ३० में - लावणी बहर खडी || मणी मुकरको जो न पिछाने, वो कैसा जोहरी प्रधान । जो शठ जड चेतन नहीं जाने, ताको किम कहियै मतिमान || ढेर ||
asमें चेतन भाव विचारे, चेतन भाव धरें ।
प्रगट यही मिथ्यात्व मूढ वो, भीम भवधि केम तरें ।
मुक्त गये भगवंत तिन्होंका, फिर आह्वानन मुख उचरे ।
करें विसर्जन पुन प्रभुजीका, यह अद्भुत अन्याय करें । दोऊ विध अपमान प्रभुका, करें कहो कैसें अज्ञान. जो शठ. ।। १ ।। श्रुत इंद्री जाके नहीं ताको, नाद बजाय सुनावें गान । चक्षु नहीं नाटक दिखलावें, हाथ नचाय तोड करतान | जाके घ्राण न ताको मूरख, पुष्प चढावें बे परमान | रसना जाके मुखमें नाहीं, ताको क्यों चांठें पकवान | फोगट भ्रम भक्ती में हिंसा, करें वो कैसे हैं इन्सान जो० ॥ २ ॥ जव गोधूम चना आदिक सव, धान्य सचित जिनराज मने । प्रगट लिखा है पाठ सूत्र, सामायिक मांहीं बियकमने | दग्ध अन्न अंकुर नहीं देवै, देखा है परतक्षपणे । तो भी शठ हठ से बतलावे, अचिन कुहेतू लगा घणे । अभिनिवेश उन्मत्त अज्ञको, आवे नहीं शुद्ध श्रद्वान जो ॥ ३ ॥
१ जिन पूजन छुडवायके, पितरादिक पूजाते है उनको, मणि काचकी खबर नहीं है कि हमको ? विचार करो ? ।।
२ प्रतिष्टादिक कार्यमें आव्हान, और विसर्जन, इंद्रादिक देवताओंका किया जाता है । इस ढूंढकको खबर नहीं होनेसें, भगवानका लिखमारा है ? गुरु विना ज्ञान कहांसें होगा ? |
३ यह ढूंढक - हमको उन्मत्त, और अज्ञान - ठहराता है। परंतु पहिलेसें ख्याल करोकि, दंडनी पार्वतीजी—यक्षादिक, पितरादिक
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