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(३४) ढूंढक कुंदनमलजीका पुकार. श्रुद्ध श्रद्धान विना सब जप तप, क्रिया कलाप होय निस्सार । विन समाकत चउदह पूर्वके, धारी जांय नरक मंष्भार । हे समकित ही सार पाय, नरभव कीजै सत असत विचार । सुगुरु मगन सुपसाय पाय मति, माधव कहैं सुनों नरनार । तजके पक्ष लखो जड चेतन, व्यर्थ करो मत खेंचातान. जो. ॥४॥
॥ इति ॥
॥ प्रगट जैन पीतांबरी मूर्तिपूजकोका मिथ्यात्व ॥
ग्रंथ कर्ता.
गछाधिपति श्रीमत्परमपूज्य श्री १००८ श्री रघुनाथजी म. हाराजके संप्रदायके महामुनि श्री कुंदनमलजी, महाराज नाम धारक ढूंढक साधुने, कितनाक प्रयोजन बिनाका--अगडं बगडं लिखके, छेवटमें एक स्तवन लिखा है. देवांकी मूर्तियांकी-पूजा करानेको, तत्पर हुई है.। उस मूर्तियांको कौनसा चेतनपणा है ? और वह मूर्तियांकी कौनसी इंद्रियां काम कर रहियां है ? जो केवल अपना परम पूज्यकी, परम पवित्र मूर्तियांकी, अवज्ञा करके-अपना उन्मत्तपणा, और अपना अज्ञानपणा, जाहीर करते हो ?॥ ___ १ जबसें तीर्थंकर देवकी मूर्तियांकी, और जैन सिद्धांतोंकी, अवज्ञा करके-यक्षादिक, पितरादिक देवताओंकी-मूर्तियांके भक्त बननेको, तत्पर हुये हो तबसें ही तुमेरा समकित तो, नष्ट ही होगया है । तुम समकित धारी बनते हो किस प्रकारसे ?॥
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