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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२११ ) नमस्कार कराती है। और सत्यार्थ. ए. ३६ में, लिखती है कि हां हां नाम सुननेकी, अपेक्षा-आकार देखनेसें, ज्यादा-और जल्दी, समज आती है।
ऐसा लिखके परमपूज्य तीर्थंकरोंकी भव्य मूर्तिके साथ-देष भाव करके, उनोंका केवल नाम मात्रमें ही, भाव मिलानेकोतत्पर हुई । और यक्षादिक महा मिथ्यात्वी देवोंकी, भयंकर मूर्ति है उसमें ही-हमारे ढूंढकमाइयांको भाव मिलानेका दिखाके, पूजा. नेको-तत्पर हुई ? । हे ढूंढकभाहओ ? अपना परमपूज्य तीर्थकर भगवानकी, भव्य मूर्ति सें-तुमेरा भाव, क्यौं भग जाता है ? उस बातका थोडासा तो-ख्याल करके, देखो ? ॥ २३ ॥ अनेक वस्तुका होत है, नाम तो एक प्रकार । स्थिर कहां मन होत है, ताको करो विचार ॥ २४ ॥
तात्पर्य-हे ढूंढक भाइओ, थोडासा एक क्षणभर विचार करो कि-ऋषभ देवादिक-नाम तो, एकही है, और-सत्यार्थ. पृ. १५ में, ढूंढनीजीने-पुरुष, पशु, पंखी, स्थंभ, आदि-अनेक वस्तुओंमे, रखनेका लिखा है । तो अब ऋषभ देवादिक-नाम मात्रका, उच्चारण करनेसें-तुमेरा मन, क्या पुरुषमें जाके, स्थिर होगा ?। अथवा पशुमें, वा, पंखीमें, कहां जाके स्थिर होगा ? उस बातका ख्याल करो ॥ २४ ॥ .. समव सरणमें होत है, भाव तुम्हारा स्थिर । सोही आकृति मूर्तिमें, करो विचार तुम धीर ? ॥ २५ ॥
तात्पर्य-हें धीर पुरुषो! विचार करो कि, ऋषभ देवादिकनामका, उच्चारण करनेसें, न तो-तुमेरा मन, पुरुषमें जाके-मिलेगा,
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