________________
( २१०) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
मूर्तिको मूर्ति हम कहैं, नहि करें नमस्कार । तीर्थकर तामें नहीं, ढूंढनी कहत विचार ॥ २१ ॥ नामके अक्षर मात्रसु, करत हो नमस्कार । तीर्थकर तामें दिसें, किस विध तुमको यार ? ॥२२॥
तात्पर्य—सत्यार्थ. पृ. ५७ में, ढूंढनीजी लिखती है कि-मूत्तिमें, भगवान नहीं है, यह तो अज्ञानीयोंने भगवान् कल्प रखा है, हम तो भगवानका-आकार, कहदेवे, परंतु-नमस्कार तो, नहीं करें, और लडडु पेडे, नहीं धरें ॥ २१ ॥ . .. ___ इसमें हमारा प्रश्न हे ढूंढकभाइओ ! ऋषभादिक नाम मात्रका, उच्चारण करके--तुम भी दररोज ही, नमस्कार करते हो। उस अक्षर मात्रमें -- तीर्थंकर भगवान, तुमको-किस प्रकारसें, दिख पडा। ___ जब तुमको नाम मात्रमें ही, देव दिख पडते है, तो पिछे ढूंढनीजीने यक्षादिक देवोंका, नाम मात्रको पढायके, हमारे ढं. ढकमाइयांको-धन पुत्रादिक, क्यों न दिवाये ? किस वास्ते यक्षादिकोंकी पथ्थरकी मूर्तियांके आगे, उनोंका मथ्था-वारंवार, घिसाती हुई, और महारंभको करवाती हुई, धन पुत्रादिक लेनेका सिखाती है ? ॥ २२ ॥
नमस्कार करें नामसु, तासु मिलावे भाव । विशेष बोधकी मूर्तिसु क्यौं ? भगजावे भाव ॥ २३॥
तात्पर्य-सत्यार्थ. ए. ५० । ५१ में, ढूंढनीजी-तीर्थंकरोंका, नाम मात्रमें ही-अपना भाव मिलानेका, कहकर-तीर्थकरोंको,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org