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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२०९) तो पिछे हमारे ढूंढकभाइओ, तीर्थकरोंका नामके-अक्षरोंका, उचारण मात्रसें-अपने मुकद्दमें, कैसे चलाते है ? । अर्थात् अपना पापकी आलोचना कैसे करते है ? । जैसे-मूर्ति में, साक्षात् तीर्थकरो-नहीं है, तैसें ही-नामके दो अक्षर मात्रमें भी, साक्षात्पणेतीर्थंकरो, नहीं है ?। . __ जब नाम मात्रसें-मुकद्दमा चलानेका, सिद्ध होगा । तब तो उनकी-मूत्तिके आगे, विशेषपणे ही मुकदमा चलानेका, सिद्ध होगा । जैसें ढूंढनीजीने, यक्षादिकोंका नामकी-उपेक्षा करके, उनोंकी मूर्तियांकी आगे-प्रार्थना कराके, धन पुत्रादिक दिवायाथा । तैसें जिनमूत्तिके आगे, विशेषपणे-मुकद्दमा चलानेका, सिद्ध क्यों न होगा ?।।
इसमें तो हमारे ढूंढकमाइयांकी-मूढताके शिवाय, दूसरा कुछ भी विशेष नहीं है ।। १९ ॥
यक्षादिकने पूजतां, ढूंढक स्वारथ सिद्ध । तीर्थ करकी पजना, करतां धर्म विरुद्ध ॥ २० ॥
तात्पर्य-सत्यार्थ. पृ. ७३ में, ढूंढनाजीने लिखा है कि-य. क्षादिकोंकी, जडरूप पथ्थरकी मूर्ति पूजासें-स्वार्थकी सिद्धि होती है । तो पिछे जिस तीर्थंकरोंके-एक नाम मात्रका, अक्षरोंको उच्चारण करनेसें, हम हमारा-आत्माका, स्वार्थकी सिद्धि, मानते है । उनोंकी मूर्ति पूजासे, हमारा आत्माका–स्वार्थकी सिद्धि, क्यों न होगी ? तर्क–साधु पूना क्यों नहीं करते है ? । उत्तरसाधु भी तो सदा भाव पूजा, करते ही है । मात्र-द्रव्यका अ. भाव होनेसें ही, द्रव्य पूजा करनेकी, मना किई गई है ।। २० ॥
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