________________
( ९४ )
ढकभाईयांका संसारखाता.
रहा है कि- शकुन पहिला शब्द आगला, । क्योंकि हरणहुयेली द्रौपदीजी लेनेको, जातेहुये पांडवोंने- कृश्नजीको मात्र इतनाही क. हाथांकि, हम हार जावेतो, तुमने सहाय्यकरना । उसवखतही, कृश्नजीने कहा कि तुम पहिलेही, हारजानेकाशब्द निकालते हो - तो पिछे, जयमला कहांसे आनेवालेहो ? ऐसा निश्चयक्रिया | और छेवटमें पद्मोत्तर राजाकी साथ, लडाई करते हुये पांचे पांडवो हारंगये, और कुनजीको ही जय मिलादेनी पडीथी ।
तैसें ही हमारे ढूंढकभाईओ, जैनमतका आश्रय लेके, सर्व परम गुरुओंकी निंदा | और तीर्थंकर गणधरोंकी भी अवज्ञा । और जैन सर्व सिद्धांत को जूठ ठहराना । देवताओंने तीर्थकरों की भक्तिभावसे, विधि सहित सत्तर भेदसें पूजा किई - सो भी संसारखाता । और ते जिन मूर्त्तिओं के आगे- नमोथ्थुणं, का पाठ पढा सो भी संसारखाता ।
इसी प्रकार - द्रौपदीजी परम श्राविकाने विधि सहित जिन प्रतिमा का पूजन करके नमोथ्थुणका, पाठ पढा, सो भी संसोरखाता । वीरभगवान के परमश्रावकोने, जो नित्य [ अर्थात् दररोज ) तीर्थंकर देवोंकी - प्रतिमाओंकी भक्तिपूर्वक सेवा किई, सो भी संसारखाता । ढूंढनीजीने-यक्षादिकोकी जड़रूप पथ्थरकी क्रूर मूर्तिकी पूजा कराई, सो तो ढूंढनाजीका स्वार्थकी सिद्धिको करनेवाली । मित्रकी मूर्त्तिसें प्रेम, लड पडे तो उसी मूर्ति द्वेष, इत्यादिक सर्व जर्गेपर- विपरीत ही विपरीत, समजायके जिनमूर्त्तिके साथ, ढूंढनीजीने - इतना द्वेष, प्रज्वलित किया है कि इस लोक परलोकका, महा फलकी प्राप्तिको देनोवाला, जिन मूर्त्तिका पूजनको, छुवा के हमारे भोंदू ढूंढ़क श्रावकभाइयांको, केवल तुछरूप धन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org