________________
ढूंढकभाईयांका संसारखाता. (९३) किया है। इसप्रश्न के उत्तरमें-भगवान् महावीर स्वामीजीने, कहा हैकि-हे गौतम, तीर्थकरोंकी प्रतिमाओंको-वांदेभी, और पूजेभी, ऐसीआज्ञा, खुदभगवान-अपने मुखसें, फरमा रहे है । और ढूंढनीजीभी-इसपाठका अर्थ, इसी प्रकारसे करती है। तोभी परमार्थ को समजे बिना, उस आज्ञाका लोपकरके, जिस यक्षादिकोंकी पतिमा, श्रावकोंको पूजनेके योग्य नहीं है, उनोंकी-(अर्थात्यक्षादिकोंकी) प्रतिमा पूजनकी सिद्धिकरके, जगें जगें पर-दिखाती हुई। और प. रमपूज्य तीर्थकरोंकी प्रतिमाका-वंदन, पूजनसें, हटातीहुई । और तीर्थकरोंकी प्रतिमाओका-वंदन,पूजनका उपदेश देनेवाले श्री वीरभगवान है उनकोभी, अनंत संसारका-कलंक, मूढतापणे चढाती हुई। ऐसा विपरीत बोधसे यह दूंढनीजी-महा भवचक्रमें, जपापात करतीहुई । और दूसरे भव्य प्राणियोंकोभी-महा भवचक्रमें, गेरनेको तत्पर हुई है ? क्या इसका नाम-संसारखाता, मान्या है ?।। १९॥ . हम हमारे ढूंढकभाईयांका, विपरीत विचार-कहांतक लिखरके दिखावें, क्योंकि-१ सर्वलोक व्यवहारसेभी विपरीत । २ जैन धर्म सेंभी विपरीत । ३ जैनाचार्योसेंभी विपरीत | ४ गणधर महाराजा.
ओसेंभी विपरीत । ५जैनके सर्वसिद्धांतोंसेंभी विपरीत । छेवटमें ६ सर्व तीर्थंकरोंसेंभी विपरीत । केवल माते हुये सांठकीतरां-मथ्या उचाकरके, फिरना । नतो दिखाई हुई युक्तिका विचारकरना, और नतो जैन सिद्धांतकारोकी तरफभी देखना, मात्र जो मनमें आजावे सोही-अनघड पथ्थर, फेंकमारना । क्योंकि-संसारखाता, यह शब्दका प्रचार, नतो कोई जैन सिद्धांतकारने लिखा है, और नतो कोई लौकिक शास्त्रोंमेंभी प्रचलित है, केवल यह-कर्ण कटुक, वाक्य है सोही हमारे ढूंढकाईयांको-संसारमें भटकानेकी, सूचना कर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org