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सोलमेसें- पंचम स्वप्नका, पाठ.
( १५१ )
भद्रभाहु स्वामीकृत, सोला स्वप्नमेंसे - पंचम स्वमके पाठका अर्थ, लिखा है सो भी, उनका परमार्थ समजे बिना कुछका कुछही लिखा है, क्योंकि चैत्य द्रव्यका आहारक, भेषधारीको तो हम भी नालायकही गिनते हैं, । इसमें तुम-मूर्त्ति पूजनका - निषेध, क्या दिखाते हो ? जिसको जितना अधिकार शास्त्रकारने - दि.खाया होगा, सोही करना उचित होता है। अब इसमें तुम्हाराही लिखा हुवा सूत्र पाठ, और उनका अर्थ, लिखके, और इनकेपर समीक्षाभी करके, तुम्हारी - अज्ञानता दूर करते हैं, सो तुमको जो वीतराग देवके वचनका, विपरीत श्रद्धानसे- संसारका भय हो तो, विचार करके - शुद्ध श्रद्धानपर आजावेंगे, नहीं तो तुम्हरा किया हुवा कर्त्तव्यका फल, तुमही पावोगे, और हमको तो, सदाही-भगवंत भक्तिसे, परम कल्याणकी प्राप्तिही होनेवाली है. ॥ इति मूर्ति निषेध किंचित् विचार ||
अब भद्रबाहु स्वामिकृत सोला स्वप्नमैसे- पंचम स्वप्नका पाठ, और अर्थ, पृष्ट. १४२ से, - ढूंढनीकाही - प्रथम लिख दिखाते हैं, ॥
यथा- पंचमे दुवास्स फणी संजुत्तो, कण्ह अहि, दिट्ठो, तस्स फलं, तेणं दुवालरस वास परिमाणे- दुक्कालो, भविस्सर, तत्थकालीय सुयपमुहा सुर्या, बोछिज्जसंति चेइयं ठयावेइ, दब्बा हारिणो मूणी भविस्सर, लोभेन मालारोहण, देवल, उवहाण, उज्जमण, जिनबिंब पठावण, विहिउमाएहिं, बहवे तत्र पभावा पयाइस्संति, अविहि पंथे पंडिस्संति
ढूंढनी काही - अर्थ - पांचवे स्वममें-- वाराफणी, काला सर्प देखा, तिसका फल-बारा वर्षी दुःकाल पडेगा । जिसमें कालिक सूत्र आदिसे, और भी बहुतसे सूत्र विछेद जायेंगे, तिसके पिछे 'चैत्य
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