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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
( २३९ ) निषेध किया है। उसका सर्वथा प्रकार से निषेध करके, और दूसरा प्रश्नमें मूर्त्ति पूजाकी आज्ञाको देनेवाले वीरभगवानकों भी, कलंकित करके दिखाया। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ||२६||
(२७) जिनदत्त सूरिजी महाराजने, अपने हाथसे, अनेक मंदिरोंकी - प्रतिष्टाओ, कराई है । परतु अपना लेखमें साधुकी पूजाका निषेध करके दिखलाया, उस साधुको पूजाका निषेध के बदल में-८. १५० से, ढूंढनीजीने, सर्वथा प्रकार सें - निषेध करके दिखलाया। क्या यह ढूंढनीका जूठ नहीं है ? ॥ २७ ॥
पाठक वर्ग ! यह सतावीस कलपके नमुने सें, ढूंढनीजीका कि-तना सत्यपणा है सो, इसरा मात्र में दिखाया है ? । इनकी दिशा के अनुसार सें, आपलोकोने - विचार करलेना, क्योंकि सर्वथा प्रकारके जूठा लेखकों-किस किस प्रकारसें, हम लिखक दिखावेंगे ? | ढूंढनीजीने हद उपरांतका जूठ लिख के, जो अपना - साध्वीजीपणा दिखाया है सोतो, गोले जीवोंको भ्रमानेके वास्तेही लिखा है, बाकी तो सब ग्रंथ, जुड़े जूठ लिखके, जैन धर्मके तत्वों—भ्रष्ट होती हुई ढूंढनीजी, दूसरे भव्य प्राणियां कोभी, जैनधर्मके तत्रोलें भ्रष्ट करने काही - उयमकर रही है । तें सिवाय नतो ढूंढनीजी के लेखमें कोई तत्र है, और न तो कोई सार भी है || तोभी ढूंढनीजीके पक्षकार, विचार चतुर, जैन समाचारके अधिपति वाडीलाल शाह, ढूंढनीजीका लेखकी बडी प्रसंसा करके, सत्यतामें अपनी सहानु भूर्ति देते रहे ? न जाने ऐसें प्रसिद्ध पत्रकार होके, ढूंढनीजीके लेखका विचार किस प्रकार से किया होगा? । सो कुछ हम समज--सकते नहीं है || और जैन समाचार के अधिपतिनेभी- सम्यक्क, अथवा धर्मनो दरवाजो, इस नामसें गूजराती भाषा में एक ग्रंथ
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