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( २३८) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. .. (२१) और चैत्य शब्दका अर्थ, दोचार प्रकारका ही-को.
शोंमें प्रसिद्ध है । तो भी ढूंढन जीने, ए. १०६ सें-११२ अर्थ, जठे जूठ लिखके दिखाया,। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥२१॥
(२२) . १२१ में, महा निशीथकी गाथाके-जिन मंदिरोंका अर्थको, उपमावाची करके दिखाया है। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २२ ॥
जो कवी जिनेश्वर देवके, मंदिरों ही दूनीयामें विद्यामान न होते तो, ढूंढ नीजी-उपमा ही, किसकी करके दिखलाती ? ॥
(२३) प. १२९ से १४० तक, सब आचार्योंकी निंदा, और सब जैन ग्रंथोंको भी निंदा, करके-टीका, चूर्णि, भाष्य, दं ढनीजी अपने आप बन बैठी ? सो क्या दूंट नीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २३ ॥ ___(२४) पृ. १४२ में, साधु पुरुषोंके-अयोग्य वर्तनका निषेघरूप, पंचम स्वामके पाठसे, सर्वथा प्रकारसें-जिनमंदिरादिकोंका निषेध करके, ढूंढनीजीने दिखलाया ? । सो क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २४ ॥
(२५) पृ. १४४ में, महा निशीथके पाठमें भी, साधु पुरुषोंकी-पूजाका हि, निषेध किया गया है । तो भी ढूंढनीजी, सबथा प्रकारसें, जिनमूर्ति पूजाका-निषेध करके, दिखलाती है ।
और दूसरी जगेपर, मिथ्यात्वी मूर्तियांका, पूजनकी-सिद्धि करके, दिखलाती है ? । सो क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥२६॥
(२६ ) पृ. १४७ सें, विवाह चूलियाका पाठमें, ७२ तीर्थकरोकी प्रतिमाका-वंदन भी, और पूजन भी, करनेका-वीर भगवानने ही दिखलाया है, और पिछेसें तीसरा प्रश्नमें साधुकी पूजाका,
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