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सनातनपणेका, और गपौडेका विचार. (१७९) एकभी निशान नहीं है ॥ कभी दिगंबर वारसा करनेको जावे तब तो, कुछ विचारभी करना पडे, परंतु तुमेरा-न तो गाममें घर,
और नतो सीममें-खेत, किस कर्तुतसे-सनातनपणेका, दावा करनेको जाते हो ?॥
फिर लिखती क्या है कि-जूठ बोलना तो-सदैव बुरा, माना है । वैसा साध्वीपणाभी दिखाना, और गड्डे के गड्डे भरजावे इ. तना तो जूठा गप्प मारना ? तो क्या केवल वचन मात्रसें साध्वी. पणा होजाता है ? ॥
फिर लिखती है कि-हम पुराणयत्-ग्रंथोंके गपौडे, नही मा. नते ॥ हे ढूंढनी ? तूंने क्या जैनोंके ग्रंथोंको, पुराणवत् गपौडे समजे ? जो जूठा बकवाद करके जैनके लाखो सिद्धांतोंको कलंकित करती है ? । तूंने इतनाभी ज्ञान नहीं है कि-जो सर्वज्ञ पुरुषोंका ज्ञान-अनंत रूपमें था, उनकाही वीजरूप खतबनीके प्रकारसेसूत्रोंमें गूंथन करके, मेल आदि बहियांके प्रकारसे-प्रकरण ग्रंथों में विस्तार किया गया है, उनको पुराणकी तरां गपौडे लि. खती हुई तेरेको जरासी भी लज्जा न आई ? जो सर्वज्ञोंका वचनों को-अल्पज्ञकी साथ जोड देती है ? । क्यों कि-द्रव्यानुयोगमें, जो कर्म प्रकृतियांका विस्तार, जैन मतका मूल भूत है सो-प्रकरण ग्रंथोंके विना, मूल सूत्रोंमे-कभी न मिल सकेगा, सो क्था पुराणकी तरां गपौडे हो जायगे ?। और कथानु योगमें-२४ तीर्थकरो काचरित्र, और चक्रवर्तीयांका चरित्र, बलदेव, वासुदेव, आदिका चरित्रोंका विस्तार भी-मूल सूत्रोंमें, कभी न मिल सकेगा ।। सो क्या गपौडे कहती है ? तो पिछे तेरेही ढूंढके जैन रामायण, दाल सागर, आदि वांचके किसवास्ते अपनी पेट भराई करते है ? । अ
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