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लोंका और लवजी ढूंढक
गर बांचते है तो सर्वज्ञके अनुयायियांका वचनको, पूराणके - गपौडे की साथ कैसे जोडदेते हो ? तुम ढूंढकोको हम कहां तक शिक्षा देंगे ?
और जिस ग्रंथोंके बिना, तुमेरी भी पेट भराई होती नही है, तैसें अलोकिक तत्वरूप ग्रंथोंको गपडे कैसे कह देती है । हम तो यह समजते है कि- तेरी छ स्त्री जातिको, कोई दो अक्षरटू- टांकर ने मात्र आने से, उनका गर्व तेरे हृदयमे, नही समाता हुवा - महा पुरुषोंकोभी, यद्वा तद्वा करनेको, बहार निकल पडा होगा, नही तो इतना - असमंजस, क्यों बकती ? । अबीभी अपना आत्माका निस्तारका मार्गकी, ढूंढकर कि जिससे तेरेकुं, और तेरे आश्रितोंको, वीतराग देवका मार्गकी, अवज्ञा करने रूप, महा मायश्चितसे, अनंत संसारका भ्रमण करना-न पडें । हम तो तुमेरा हितकेही वास्ते कहते है, आगे जैसी तुमेरी इच्छा || इत्यलं
ढूंढनी -- पृष्ट. १५७ से - साढे चारसो, और अढाईसो वर्ष, १ लोका, २ लवजीको, होनेका प्रश्न उठाके । पृष्ट. १५८ में, लिखती है कि - १ लॉकेने तो, पुराने शास्त्रोंका उद्धार किया है, तो नयामत निकाला है, न कोई नया कल्पित ग्रंथ-बनाया है.
और २ लवजीने भी-स्थिलाचारी यतिगुरुको छोडके, शास्त्रोक्त क्रिया करनी - अंगीकार किई है । न कोई नया मत निकाला है, न कोई पीतांवरियां की तरह, अपने पाललकोनेको, चालचलन के अ नुकुल, नये ग्रंथ - बनायें हैं । हां यह संवेग पीतांबर, ( लाच्छापंथ ) अढाईसो वर्षसे निकला है ।। वैशा लिखके चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग २ के अंतिमकी, पृष्ट १५४ में - श्रीयशोविजयजी, और सत्य विजयजी ने किसीकारण के वास्ते रंगे है. बैशा प्रमाण देती है । फिर. पृष्ठ. १६० ओ. २- सो कारण कोई वैसाही पुरुष दूर करेगा, एक
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