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( २४८ )
मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र,
चार किया कि - हुं अज्ञानी होगा ? वास्ते कुछ ज्ञान प्राप्त करना । फिर किसीसें सुना कि - तपसा ज्ञाना वाप्तिः । अब इस बचनको भी धारण करके, चले तपसा करके ज्ञानकी प्राप्ति करनेको पहाड़ उपर ।
अब दूसरे तापसो थे सो, ढूंढते ढूंढते दिन पंदरा वीसमें, पुहचे पहाड उपर देखा भूष तृषासें पीडित, परण तुल्य दिशामें । ज्ञातो क्या प्राप्त होनेवाला था ? लेकिन ते तापसो, मरण दशाकी प्राप्तिसें छुडायके अपना मउमें लेकर आगये ।
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फिर किसीसे सुनाकि-समाधि मूलोहि धर्मः । अर्थात् सबकी समाधि करना सोही धर्म है । अव ते नवीन तापस, चला समाधि करनेको, चलते २ एक भाविक गाम में, बैठे समाधि लगायके । और धर्मका स्वरूप पुछनेवाले लोकों को भी कहता रहा कि - समाधिमूलोहि धर्मः । लोक पूजासें कुछ धनकी भी प्राप्ति हुई । परंतु थुत्तों को, धनप्राप्तिको खबर पडने सें, भक्तिपूर्वक ते धूर्त्त लोको भी धर्मका स्वरूप, पुछनेको लगे । अब सारा सारका विचार शून्य, ते नवीन तापसने दिखाया समाधि मूलक धर्म । धन लेनेका प्रपंच के वास्ते, ते धुत्ताने भेजी वेश्याको, जाके कहनेलगी, स्वामीनाथ मेरा कामज्वरकी समाधि करो ? |
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इधर स्वामीजी गये समाधि करनेको, उधरसें धूतेथे सो धनको ले गये, गामवाले लोंकों को मालूम होनेसें, स्वामीजीको - गामसें निकाल दिये । इस वास्ते - सारा सारका विचार बिना के स्वामीजीको, नतो—दया मुलक धर्मसें, कुछ कार्य सिद्ध हुवा | और स्वामीजीको, न तो तपसानें भी कुछ ज्ञानकी प्राप्ति हुई । और समाधि मूलक धर्म तो स्वामीजीका, दोनों भत्रका समाधानही हो गया ||
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