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मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. (२४७) कष्टसें क्या सिद्धि होने वाली है ? उस बातका अछीतरांसें विचार करो।
इसी वास्ते हम कहते है कि,यह तुमेरी दयामाता, विचारवाली नहीं है, किंतु दया मूढता ही है । इस प्रकारकी-दया मूढतासें, न तो तुम अपना कल्याण करसकोंगे, और न तो दूसरेका भी कल्याण कर सकोगे, इसमें एक साधारण-उदाहरण, देके मैं मेरा लेखकी भी समाप्ति करता हुँ । जैसे कि-कोइ एक पुरुषथा, सो धर्म करनेकी तीव्र इछावाला होके, तापस व्रतको अंगीकार किया । उसने किसीसे श्रवण करके धर्मके स्वरूपका निश्चय किया कि-दया मूलो हि धर्मः । परंतु-ते नवीन तापस, सारा सारका विचार नहीं कर सकताथा । एकदिन भिक्षादिक कार्यके वास्ते, दूसरे तापस वस्तिमें जाते हुये, शीतज्वरसें पीडित एक तापसकी रक्षा करनेके वे स्ते इस नवीन तापसको छोड गये । और कहते भी गये कि, इसको आहार, पानी, आदि कुछ देना नहीं । हम अभी आते है। ____ अब ते शीत ज्वरीने, दीनपणा धारण करके, शीतल जल मंग्या, उस नवीन तापसने-विचार कियाकि, अरेरे-दया मूलोहि धर्मः, एसा विचार करके, ते शीत ज्वरीको शीतल जल दीया ।
अब ते ज्वरी, जल पीनेकी साथ-त्रिदोषमें आके, तरफडाट करनेको लगा। इतनेमें दूसरे तापसों भी आ गये । माहित होके पश्चात्ताप करते हुये, कहने लगेकि-अरे अज्ञानिनः किं न कुर्वति । अर्थात् अज्ञानी पुरुषों क्या क्या अनर्थ नहीं करते है ।
अब इस वचनको भी, ते नवीन तापसने धारण करके, वि.
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