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( ४८ ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका -२ स्थापना निक्षेप. वेगा ? | क्यों कि - नामसें भी, मूर्ति है सो - विशेषपणे ही बोधको प्राप्त करानेवाली, सिद्ध हो चुकी है ।।
देखो सत्यार्थ- पृष्ट ३५ में ढूंढनीजी भी लिखती ही है कि - हां हां सुननेकी अपेक्षा ( निसबत ) आकार [ नकसा ] देखनेसें- ज्यादा, और जल्दी समज आती है । यह तो हम भी मानते है |
तो अब - नामसें भी विशेषपणे बोधको कराने वाली, वीतरागी मूर्ति को देखनेसें-- आल्हादित न होना, सो तो कर्मकी बहुलता के सिवाय, दूसरा विशेषपणा क्या समजना ? |
इस वास्ते वीतराग देवके भक्तोंको विचार करनेकी भलामण विशेषपणे ही करता हुं ॥
फिर भी देखाोक - हमारे ढूंढक साधुओं, और साध्वीयां, मर्यादाको छोड करके अपनी मूर्तियां ( अर्थात् काली स्वाहीका फोटो ) खिचवाते है, और अपने २ भक्तों को दर्शन के लिये अर्पण भी करते है, तोपिछे जिस अरिहंतका नाम, रात और दिन, ले ले के-वंदना, नमस्कार करते है, उनकी परम पवित्र मूर्त्तिको - वंदना, नमस्कार, क्यों नही करना ? । अपितु अवश्यमेव करने के योग्य ही है |
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ढूंढक- - हे भाई मूर्त्तिपूजक देख सत्यार्थ पृ. ५० सें - ५१ तक — हमारी ढूंढनीजने लिखा है कि- पार्श्व नामसेंगाली देतो, हमे कुछ द्वेष नहीं, तुम्हारा पार्श्व अवतार ऐसें कहके गाली देतो, द्वेष आवे, ताते वह नामभी, भावमें ही है। उसमें दृष्टांत यह दिया कि - राजा के पुत्रका नाम, इंद्रजित् है, तैसेंही धोबीके पुत्रका नामभी, इंद्रजित है, सो धोबीका पुत्र मर गया, वह धोबी
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