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________________ लोका, लवजी ढूंढकका, विचार. ( १८५ ) प्रमाण दिये है, सोतो हमारा गुरु वर्यका लिखाहुवा हमको मंतव्य है, इसमें तेरी सिद्धि क्या होगी ? ॥ 1 और जो मैथुन वर्जके, कारणसर वस्त्रादि, रंगनेकी - आशा दिखाई है, सो भी योग्य ही है, क्यों कि, जिसको - ब्रह्मव्रत, पक्षा होगा, उनको दूसरा कोई भी अनुचित कार्य करणेकी - जरुरही नही रहती है, इसी वास्ते शास्त्रकारने भी, उसबातकी ही सकताई दिखाई है, तुम ढूंढों तत्त्वतो समजते है नही, और जूठा बकवाद ही कर उठते हो ? || अब इस बात में, ज्यादा तपास करना होवें तो, तूं ही तेरा जन्मके आचरणको देखके, अनुभव करले, हमारे मुखसे किस वास्ते कहती है ? और अधिक तपास करनेकी मरजी होंवे तो, मारवाड, मालवा, काठियावाड, दक्षिण, आदिमें फिरके देखले कि, मुखसे दया, दया, पुकारनेवाले, इस चौथे व्रतमें, कितने पक्के है ।। इसवास्ते जो जूठी कुतर्कों करनी है, सोई - कुपत्तीरन्नपणेका, स्वभाव ही प्रगट करना है, ॥ ॥ और जो एलिया रंग दिखाती है, सो तो तेरे ही ढूंढक मतमें हुये है, देखनेकी इछा होवें तो, देखलें मालवा, मारवाड देशमें ॥ और आत्माराजी महाराज - प्रथम ढूंढियेहीये, सोतो तेरा कहना- ठीकही है, परंतु ढूंढियोंको - सनातनपणे, नही समजा, केवल मृढ पणे का-मत, समजके, छोडदिया--किन तो जिसका सपडामूल, और नतो सपडीडाल, विनामाबापके लडके की तरह, यह ढूंढक तभी विना गुरुका समजके ही छोडा है ?|| अगर तुमभीविचारपर आजावोगे तो, तुम कोभी श्रृंग, और पुंछ, विनाकाही ढूंढकमत - मालूम हो जायगा || Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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