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( १८६) लोंका, लवजी ढुंढकका विचार.
और जो तूने, लिखा है कि-सूत्रोक्त क्रियाना सधाई, और रेलमें-चढनेको, दुशाले, धुस्से-ओहनेको, मौलदार औषधियों-खानेको, ढूंढकमन छोडके रंगवस्त्र धारे ॥ __ अबइसलेखमें, तूंने केवल कुपत्तीपणे काही स्वभाव प्रगट किया है, प्रथम तुमेरे ढूंढकोंमें-सूत्रोक्त क्रियातो एकभीनही है, जितना तुमेरा चालचलन है, सो केवल-मनकल्पितही है, देखना हो तो देखलो सम्यकशल्योद्धार पृष्ट. १८ सेलेके २८ पृष्ट तक, यहजूठी चातुरी तुमेरी कहांतक चलेगी?॥ और रेलपर चढनेका जो कलंकदिया है सोभी तूंने, कुपत्ती रन्नपणे काही आचरण किया है, क्योंकि इस महात्माने नतो कभी रेलपर चढनेकी इच्छा किई है, और नतो इच्छा पूर्वक कभी रेलपर चढनेकोभी गये है, तो पिछे तेरा जूठा कलंक चडानेसे-कुछ कलंकित नहोसकेंगे.
और तूंने जो एकाद असंयमी कीटीका करके, सबको असंयमी ठहरानेका प्रयत्न किया है, सो भी मूढपणाही किया है, क्योंकि तेरे ढूंढकोंमेभी असंयमी, तेरेको जितना चाहीताहोगा, उतनाही हनिकाल देते है, प्रथम तो तेरीही चर्या तूं अपने आप निहाल कर देखलें, पीछे दूसरोंकों दूषितकरनेका प्रयत्नकर ? धन्य तो उनको है कि-अपने गुणमें मग्नहोके, दूसरोंकोभी गुण में वासितकरनेका प्रयत्न करें ? बाकी कुपत्ती रन्नपणाकरने वाले तो, बहुतही दूनीयामें पडे हुये है. इत्पलं प्रपंचेन.
ढूंढनी-पृष्ट. १६४ से लेके, पृष्ट. १६६ तक, वस्त्रकाही विचारमें, चातुरी दिखाई है कि--आचारांग सूत्र अध्ययन सातमे वस्त्रका रंगना, साफ मना है।
समीक्षा-आचारंगकी जो साक्षी दीई है, उसमें तो न
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