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( १८४) लोंका, लवजी ढूंढकका विचार, हान् महान् आचार्यों हुयें है, उन सभी आचार्गीका-वचनको, शिरसा वंद्य मानके, उनके ही अनुयायी हुये है, इस वास्ते मतवादी, या पंथी, कभी नहीं बन सकते है, और तुम ढूंढक है सो तो, म. नमें आये सोई, एक वखत तो मानलेना, और वही बात दूसरी बखत नही मानना, वैशे ढोंगी होनेसे, मताग्रही, हठीले, कुमार्गी
आपां पंथी, सभी प्रकारके रूपको धारण करनेवाले बने हुये है ? परंतु संवेगी तैसे नहीं है । इस वास्ते लाहा पंथ विगरे कहकर जो उपहास्यपणा करती है, सोतो अपना कलंक दूसरेको चढानेका ही प्रयत्न कररही है ? परंतु यह जूठा कलंक कभी न चढ सकेगा अगर जो तूं, एक पीतवस्त्र मात्रका कलंक देके-कलंकित करनेको चाहती होगी तो, उसको तो हम कह चुके है कि, कारण वास्ते किया हुवा है, जो कारणके लिये किया है सो दूर होजावे तो, अबीभी छोड देनको तैयार है । इस वास्ते नतो मत गिना जावेगा नतो हठ भी कहा जावेगा ॥ अंगर जो हठ या मत, कहती होंगी तो, तेरे ढूंढकमें तो, सैंकडो ही मतकी, गिनती करनी पडेंगी, क्यों कि-तेरे ढूंढक तो, केवल हठ पूर्वक ही, कोई तो नील वस्त्रधारी बना है, कोई तो अघोर पंथी बना है, और कोई तो महा अघोर पंथकारूप धारण करके फिरता है, । और प्रतिक्रमण क्रिया विगरेमे अनेक प्रकारका हठ ही पकडकर अपने आप मोक्षकी मूत्तियां बन बैठे है, तैसें संवेगी कुछ हठकरके-पीतवस्त्रको, नहीधार ण करते है, जो तेरे ढूंढकोंके, सैंकडों मतकी साथ, संवेगीको भी, कलंकित कर सकेगी? | क्यों कि-यह पीतवस्त्र किया है सो, आ. चार्योंकी सम्पतीसे ही किया गया है, और आचार्योंकी सम्मतीसे-दूरकरनेको भी, तैयार ही बैठे है । इस वास्ते तेरी खीचही कुछ इसमें-नही पकनेवाली होगी। और पीतवस्त्र वास्ते जो तूंने
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